ग़ज़ल
करके अगर तुम थोड़ी सी तदबीर देखते,
तो रहते ना उम्र भर यूँ ही तकदीर देखते
कड़वी तो थोड़ी जायके में थी बेशक मगर,
फायदे की थी जो बात की तासीर देखते
जान जाते क्यों ना चल सका तुम्हारे साथ,
मेरे पैरों की इक बार जो जंजीर देखते
पहचान लूँगा बंद आँखों से भी मैं तुम्हें,
कि गुज़री है जिंदगी तेरी तस्वीर देखते
शायर को शेर कहने का शऊर नहीं आज,
क्या कहते जो गालिब-ओ-फैज़-ओ-मीर देखते
— भरत मल्होत्रा