मेरी कहानी 158
बीबी का हस्पताल में इलाज होने लगा। हर एक किस्म के टेस्ट हुए और इलाज शुरू हो गया। कुछ दिन बीबी उदास रही क्योंकिं सारा दिन हम उस के पास नहीं रह सकते थे, वजह थी हमारा काम। इस के लिये मैं अपने सीनियर इंस्पेक्टर के ऑफिस में गया और उस को अपनी समस्या बताई और कहा कि जब तक मेरी माँ हस्पताल में रहेगी, तब तक मुझे लेट शिफ्ट दे दी जाए। यह सीनियर भी बहुत अच्छा था और इस का नाम था मिस्टर टरनर। यह बहुत ही अच्छा था और उस का चेहरा भी इंडियन जैसा दिखाई देता था। इस ने भी मेरी मदद कर दी और बोला,” mister bhamra ! i will book you late shifts, and let me know when your problems are solved “, यह उस के लफ्ज़ हैं जो अभी तक भूला नहीं हूँ । बीबी 26 दिन हस्पताल में रही और इस दौरान सब से ज़िआदा हमारा हौसला बुलंद किया, भुआ निंदी और फुफड़ ने। सब से पहले उन्होंने आर्थिक जरूरतों का ही पुछा जो हम को अब कोई जरुरत नहीं थी। कुछ दिनों बाद ही बीबी के पास हस्पताल में कोई भी सारा दिन रह सकता था। सुबह से शाम तक मैं हस्पताल में रहता और शाम को कुलवंत और कभी कभी रीटा आ जाती । बीबी को मैं लौंज में ले आता, यहां टीवी होता था और बीबी के हाथों की एक्सरसाइज के लिए कई कुछ रखा होता था जो एक नर्स आ कर करवाती थी और कभी कभी मैं एक्सरसाइज करा देता । इन से उंगलियों और हाथों की एक्सरसाइज हो जाती थी। क्योंकि बीबी को मिनी स्ट्रोक हुआ था, इस लिए एक्सरसाइज ज़िआदा कराते थे। कभी कभी हमारी छोटी बेटी रीटा की ननद चन्नी आ जाती और सारा दिन बीबी के पास रहती। चन्नी बहुत अच्छी लड़की है और वोह बर्मिंघम से अपनी गाड़ी में आती थी। इस के इलावा बहादर ने तो आना ही था, और भी बहुत लोग रोज़ाना आते रहे। एक हफ्ते बाद बीबी की बैड एक ऐसे वार्ड में शिफ्ट कर दी गई यहां सभी बूड़ी अँगरेज़ औरतें ही थीं। यहां आ कर बीबी बहुत निराश थी क्योंकि उस को अंग्रेजी आती नहीं थी। इस में हंसने की बात यह थी कि बीबी का रंग गोरा होने के कारण वोह भी उन में गोरी ही लगती थी। जब वार्ड में बीबी को मिलने आया तो एक गोरी बुढ़िया मुझे बोली कि वोह तो मेरी ममी को वाइट ही समझती थीं और वोह बीबी के साथ इसी लिए अंग्रेज़ी में बात करती थीं। उस दिन मैंने बहुत बातें कीं क्योंकि सभी अँगरेज़ बुढ़िया बहुत बातें करने वाली थीं। फिर मैंने कंघी उठाई और बीबी के वालों में कंघी चला कर वालों का फैशन अँगरेज़ बुढ़ियों जैसा बना दिया। सभी बुढ़िया हंस रही थीं और बीबी को मुख़ातब कर के एक बुढ़िया बोली, ” your son is very good “, दिन बीत रहे रहे थे और बीबी धीरे धीरे अच्छी हो रही थी। 26 दिन बाद हस्पताल से डिस्चार्ज हो जाने का डाक्टर ने हमें बता दिया।
बीबी के कपडे ले कर मैं और कुलवंत हस्पताल पहुँच गए और बीबी को घर ले आये। कुछ दिन बाद हमारी फैमिली डाक्टर मिसेज़ रिखी बीबी को देखने हमारे घर आई और बीबी से बहुत बातें कीं। बीबी को मिसेज़ रिखी इतनी अच्छी लगीं कि उस ने कुछ ही दिनों में क्रोशिये से एक गोल मेज पोश बना दिया और जिस दिन बीबी चैक अप्प के लिए डाक्टर की सर्जरी में गई, पहले तो मिसेज़ रिखी को गले से लगाया और फिर उस को मेज पोश दे दिया। मिसेज़ रिखी भावुक हो गई और कहने लगी, ” आप ने तो मेरी माँ की याद दिला दी जो बिलकुल आप जैसी है “, सर्जरी से बाहर आ कर बीबी डाक्टर की सिफ़तों के पुल बाँध रही थी। एक दो महीने बाद चैक अप्प कराने के लिए डाक्टर की सर्जरी में हम जाते ही रहते थे। एक दिन इसी तरह हम वेटिंग रूम में बैठे थे। जैसे बज़ुर्गों का सुभाव होता है पूछने का कि, तुमारा कौन सा गाँव है, इसी तरह बीबी लोगों से बहुत बातें कर रही थी। एक बूढ़ा बहुत देर से बीबी की ओर देख रहा था, कुछ देर बाद वोह अपनी सीट से उठा और बीबी के नज़दीक आ कर बोला,” तू चिंति है ?”, बीबी हैरान हो कर बोली, ” हाँ मेरा मायके का नाम चिंति ही था “, वोह बोला, ” पहचाना मुझे ? मैं डींगरीआं वाला अमर सिंह हूँ, शरीके से तेरा भाई “, बीबी का चेहरा खिल गया और ऐसे बातें करने लगी जैसे सब कुछ एक दम ढेरी कर देना चाहती हो। बीबी का मायका डींगरीआं गाँव था जो आदम पुर के नज़दीक है। बीबी की शादी, पिता जी के साथ उस समय हुई थी जब वोह सिर्फ 14 साल की थी जो उस वक्त आम बात थी। बीबी का नाम तेज कौर है लेकिन कुछ कुछ मुझे भी पता था कि मेरे ननिहाल में बीबी का नाम चिंति था। बीबी तो जैसे एक दम बचपन में चली गई और सब कहानियाँ सुना कर हंसने लगी। उधर रिसैप्शनिस्ट गोरी उठ कर हमारे पास आ गई और बोलने लगी कि प्लीज़ हम दूसरे लोगों को डिस्टर्ब ना करें। तब जा कर दोनों धीरे धीरे बोलने शुरू हुए। इस के बाद अमर सिंह एक दफा हमारे घर आया। तब मैंने भी उस के साथ कुछ बातें कीं। यह अमर सिंह बीबी के घरों में से ही था और दोनों बचपन में इकठे खेला करते थे। किया इत्फ़ाक है कि बचपन के बाद बूढ़े हो कर मिले और फिर भी पहचान लिया।
दिन बीत रहे थे और बीबी मेरे साथ रह के बहुत खुश थी। आठ नौ महीने हो गए थे। बीबी बहुत खुश थी। एक दिन एक ऐसी बात हो गई, जिस ने बीबी को उदास कर दिया। एक दिन मैं एक दो बजे काम से आया तो बीबी रो रही थी। मैंने पुछा तो उस ने किचन की ओर इशारा कर दिया। हैरान हुआ मैं किचन में गया तो देखा सारी किचन धुएं से काली हो चुकी थी और एक तरफ कूड़े वाला प्लास्टिक का बिन जला हुआ था। कुछ कपड़े भी जले हुए थे। किचन की हालत बहुत खराब थी। यह भाग्य की बात ही थी कि सारे घर को आग लग सकती थी क्योंकि यहां मकानों में लकड़ी बहुत इस्तेमाल होती है। बीबी ने गलती से प्लास्टिक का डस्टबिन जलते हुए गैस कुकर पर रख दिया था और खुद कोई काम करने लगी और डस्टबिन को एक दम आग लग गई जो फैलती ही गई, विचारी बीबी घबराहट में जो हाथ में आया उस से आग बुझाने लगी जो उस ने बुझा तो दी लेकिन सारी किचन धुएं से काली हो गई। यह बीबी ने मुझे बताया और मैंने बीबी को हौसला दिया कि इस में घबराने की कोई बात नहीं थी लेकिन भीतर से मैं भी डर गया था कि अगर कुछ हो जाता तो बीबी किस को टेलीफोन करती क्योंकि उस को तो अंग्रेज़ी भी बोलनी नहीं आती थी। जब कुलवंत काम से वापस आई तो वोह भी देख कर डर गई और पहले बीबी को पुछा कि वोह तो ठीक ठाक थी। बीबी को हम हौसला तो दे रहे थे लेकिन वोह बहुत डर गई थी। मैं और कुलवंत ने पहले किचन में जो फ्रूट और सब्ज़ियां थीं, उन को बाहर गार्डन में फैंक दिया। फिर पानी गर्म किया, उस में सोडा डाला और कपड़ों से सारी दीवारें और छत को साफ़ करने लगे। देर रात तक हम सफाई करते रहे और सब दीवारें और छत साफ़ हो गईं। शनिवार को हम पेंट ले आये और पेंट करके दो दिन में सारी किचन पहले से भी बढ़िया बना दी। अब बीबी खुश हो गई। बात गई आई हो गई।
उधर इंडिया से छोटे भाई निर्मल के खत आ रहे रहे थे कि हम बीबी को इंडिया भेज दें और इधर बीबी भी home sick होने लगी थी। हम बीबी को अपने पास ही रखना चाहते थे लेकिन राणी पुर वाले भी बीबी के बगैर उदास थे क्योंकि बीबी को इंडिया से आये दो साल होने को थे। बीबी अकेली इंडिया जा नहीं सकती थी और मुझे छुटियां बुक कराने के लिए एक साल पहले एप्लिकेशन देनी थी, एक साल तक बीबी को और इंतज़ार करना था। हमारे गियानी जी, जिन के बारे में मैं पहले बहुत कुछ लिख चुक्का हूँ वोह अब टाऊन की दुसरी ओर रहते थे। वोह अपने छोटे बेटे कुलवंत और उस के परिवार के साथ रहते थे। कभी कभी छै महीने या साल बाद मैं उन से मिलने जाया करता था। एक दफा जब मैं उन्हें मिलने गया तो उन्होंने बीबी के बारे में पूछा तो बातों ही बातों में मैंने उन्हें बताया कि बीबी इंडिया वापस जाना चाहती थी, तो गियानी जी बोले कि उन का एक दोस्त इंडिया जा रहा था और अगर हम चाहें तो बीबी उस के साथ जा सकती थी। मैंने गियानी जी को पुछा कि वोह कब जा रहा था तो गियानी जी ने उसी वक्त अपने दोस्त को टेलीफोन किया तो वोह आधे घंटे में घर ही आ गया। अब उस से हमारी बातें हुईं तो पता चला कि अभी उस के इंडिया जाने में चार हफ्ते रहते थे। कहाँ से सीट बुक कराई थी, पता लगने पर मैं ट्रैवल एजेंट के पास गया और गियानी जी के दोस्त का नाम ले कर उस को बताया कि बीबी के लिए सीट इसी जहाज़ में चाहिए थी और हो सके तो बीबी के पास ही सीट हो। यह भी चमत्कार ही हुआ कि बीबी की सीट इसी जहाज़ में गियानी जी के दोस्त की पिछली रो में बुक हो गई। घर आ कर मैंने बीबी को बताया तो उस का चेहरा खिल गया। अब तैयारीयां शुरू हो गईं। नए नए कपड़े बीबी के लिए आने लगे और कुछ हमारे रिश्तेदार भी जब बीबी को मिलने आते तो कोई सूट दे देते, जिस से बीबी का सूटकेस भर गया। दो हैंड बैग भी भर गए। सूटकेस का वज़न बहुत ज़्यादा हो गया था। जिस दिन बीबी को ले कर एअरपोर्ट पर पहुंचे तो चैक इन पर वज़न दस किलो ज़्यादा था और गोरी बहुत पैसे मांग रही थी। फिर मैंने कुछ रेकुएस्ट सी की और उस को बताया कि बीबी स्ट्रोक से रिकवर हुई थी और इस में ज़्यादा टॉयलेटरीज़ ही हैं। गोरी ने बीबी की और देखा और कुछ सोच कर ओके कर दिया। एक दफा फिर आज बीबी को अलविदा कहने के लिए सभी हाज़र थे । सभी हंस हंस कर बीबी के साथ बातें कर रहे थे। यूं ही बीबी जहाज़ की ओर जाने लगी, सब ने उसे बाई बाई किया और सभी अपने अपने घरों की ओर चल दिए ।
बीबी इंडिया पहुँच गई थी। गाँव में ही वोह ज़्यादा खुश थी और निर्मल भी उस का बहुत खियाल रखता था। इस के बाद एक दफा फिर हम इंडिया गए। बीबी के साथ बहुत बातें करते रहते। अब बीबी पहले जैसी नहीं थी, एक तो उम्र,दूसरे कमज़ोरी ने उस की सिहत पर बहुत असर डाला था। चलने में वोह ऐसी थी जैसे गिर जायेगी। सुबह सुबह मैं बीबी का हाथ पकड़ कर उस को मकान के इर्द गिर्द सैर कराता ताकि टांगों में ताकत रहे। दवाई का खियाल निर्मल बहुत रखता और कभी कभी ब्लड प्रेशर चैक करता रहता। बीबी की एक सिफत थी कि वोह दवाई का बहुत धियान रखती थी, एक दिन भी मिस नहीं करती थी, इसी लिए उस का ब्लड प्रेशर नॉर्मल रहता था। रात के वक्त जब तक टीवी देखते थे, सभी बड़े कमरे में बैठे रहते थे और जब सोने का वक्त होता तो कोई ना कोई बीबी को उस के सोने के कमरे में ले जाता। एक दो दफा बीबी रात को टॉयलेट जाती थी, जो पांच छै गज़ की दूरी पर ही थी। एक दिन बीबी टॉयलेट जाते हुए गिर पढ़ी और उस के मुंह पर चोटें लगीं। सभी फिक्रमंद थे कि किया कीया जाए। और तो कुछ उपलभ्द नहीं था, मेरे दिमाग में एक आइडिया आया और निर्मल को कहा कि क्यों ना बीबी के लिए कुर्सी से एक कमोड ही बना दें और बीबी ठंडी रात को बाहर ना जाए। आडिया निर्मल को भी पसंद आया। दोनों भाइयों ने एक कुर्सी की सीट में एक गोल आकार से कुछ हिस्सा एक छोटी आरी से काट दिया और उस में प्लास्टिक की बाल्टी फिक्स कर दी। अब बीबी अपनी चारपाई से उठ कर पिछाब कर लेती और सुबह को हम बाल्टी उठा कर टॉयलेट में डाल आते और बाल्टी को सोडे से धो कर फिर से कुर्सी में फिक्स कर देते। अब कोई फ़िक्र वाली बात नहीं थी। सुबह को जब कभी शौच के लिए बीबी जाती तो उस से सलवार का नाड़ा बांधना मुश्किल हो जाता। कई दफा परमजीत या कुलवंत बाँध देती। फिर ऐसे ही एक दिन परमजीत और कुलवंत दोनों घर नहीं थीं और बीबी टॉयलेट गई हुई थी। मुझे महसूस हुआ कि बीबी से नाड़ा बाँध नहीं होता था, तब मैंने बीबी को बोला कि मैं बाँध देता हूँ लेकिन बीबी शर्मा रही थी। मैंने कहा, ” बीबी इस में शर्माने की क्या बात है, तू ने हम सब को इतने वर्षों तक साफ़ किया था, किया हम यह नहीं कर सकते “, और मैंने नाड़ा बाँध दिया और बीबी का हाथ पकड़ कर कमरे में ले आया। इस के बाद बीबी का संकोच ख़तम हो गया और वैसे तो परमजीत थी लेकिन कभी कभी मैं भी यह कर देता।
जब हम भारत से वापस इंगलैंड को आने लगे तो बीबी ने कुलवंत को आशीर्वाद दिया और कहा भगवान् तुम्हें पोते दें। जैसे भारत में हर कोई बेटा ही चाहता है,इस तरह माँ को भी लड़के की खुवाहिश ही थी। यह बात कुलवंत ने उस वक्त मुझे बताई, जब हमारे घर में ऐरन पैदा हुआ था। एक तो बीबी ने आशीर्वाद दी थी, दूसरे दिली बंगला साहब गुरदुआरे में निशाँ साहब की परिक्रमा करते समय कुलवंत को महसूस हुआ था कि उस को पोते की दात्त मिलने वाली थी। अब भी बहुत दफा कुलवंत बीबी को याद करके यह बात करती है। हम इंगलैंड आ गए थे। और एक दिन निर्मल का खत आया कि बीबी हमें छोड़ गई थी। बीबी को फिर अटैक हुआ था और चारपाईं पर ही दुःख उठा रही थी। निर्मल और परमजीत ने बीबी की बहुत सेवा की लेकिन अब आख़री वक्त आ गया था और हमें छोड़ कर चली गई।
माँ की ज़िन्दगी के आख़री सफर को लिख कर मैं फिर उसी बात पर आ जाता हूँ, जब निर्मल फोटो वाला बॉक्स ले कर आया था और मैं उन फोटो में से अपनी बचपन की फोटो ढून्ढ रहा था। इन में से कुछ फोटो मैंने बीबी की उठा लीं और एक बहुत पुरानी फोटो हम तीनों भाइयों की मिल गई जब हमारा मकान बन रहा था। मैं और बड़े भाई आधी बनी हुई दीवार के पास खड़े थे और निर्मल के सर पर पांच छै ईंटें रखी हुई थीं, तब निर्मल छै सात साल का होगा और मैं उस वक्त चौदह पन्द्रह साल का था। कुछ देर बाद निर्मल कुछ और फोटो ले के आया, जिन में मेरी वोह बचपन की फोटो भी मिल गई लेकिन अफ़सोस की बात यह है कि वोह फोटो अब भी मुझे मिल नहीं रही। हो सकता है इंडिया से आते वक्त राणी पुर में ही कहीं रख ली होगी या यहां ही कहीं हो लेकिन मिल नहीं रही। ज़्यादा वक्त हमारे पास नहीं था क्योंकि शादी में समिलत होने के लिये ही हम आये थे।
इंगलैंड आने से एक दिन पहले मैं रात को गियान के घर चला गया। जाते ही मैं उस को देख कर हंस पढ़ा और बोला,” बई गियान चन्द !जब भी तुझे रात को मिलने आता हूँ, तू अंगीठी के पास ही बैठा होता है “, गियान चन्द हंस पढ़ा और बोला,” किया करें गुरमेल साली ठंड ही नहीं जाती “, कोई दो घँटे हम ने बातें की और हर वक्त हमारी वोह ही पुरानी यादें होती थीं और ख़ास कर मास्टर हरबंस सिंह की,” गियान चन्द !यह वनत कौन सी फिल्म है “, और मेरा कहना, ” मास्टर जी यह वनत फिल्म नहीं है, यह गलत छप गया है, यह वचन फिल्म है ” और मास्टर जी को गाना सुनाता,जब लिया हाथ में हाथ, निभाना साथ, मेरे सजना आं आं आं , देखो जी हमें छोड़ ना जाना, यह साथ कभी ना छोटे चाहे दुश्मन बने ज़माना, देखो जी दिल तोड़ ना जाना। कुछ देर के बाद मैं आ गया और सुबह को हम अमृतसर पहुँच कर जहाज़ में बैठे अपनी सौतेली मातृभूमि की तरफ उड़ रहे थे। चलता. . . . . . . . . .
नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी। पूज्य माता जी का विस्तार से वर्णन करने के लिए हार्दिक धन्यवाद्। “मातृ देवो भव।” यह वैदिक बाक्य है। माँ एक प्रकार से ईश्वर जैसी ही होती है। जन्म के समय उसका मिलना हमारे पूर्व कर्मों के कारण होता है और बिछुड़ना यह सृष्टि का नियम है। शायद यह बिछुड़ना पुराने वा नए जोवों से मिलने के लिए होता है। ईश्वर की महिमा अपरंपार है। उसे जानना मुश्किल है। मेरा एक प्रिय भजन है “तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं, दृष्टि किसी की तू आया नहीं। तेरा पार किसी ने भी पाया नहीं। सादर।
मनमोहन भाई , माँ के साथ १९ साल तो गाँव ही बीते और कुछ समय हमारे पास भी रही और इंडिया तो अक्सर आते ही रहते थे . पिता जी के साथ मैं कभी खुल नहीं सका , ऐसा नहीं था किः वोह मुझे चाहते नहीं थे लेकिन मैं बचपन में कुछ शर्मीला होने के कारण हमारी यह दीवार बनी रही लेकिन माँ से बहुत गहरा रिश्ता था और यहाँ तक याद है मैं कभी माँ से नहीं रूठा क्योंकि कुछ भी मैं मांगूं उस ने कभी इनकार ही नहीं किया था ,इसी लिए अब भी उन की याद आती रहती है .फिर माँ ने तो मुझे जनम दिया था .बीटा जितना मर्जी बुरा हो माँ के लिए वोह दुलारा ही होता है .
नमस्ते एवम धन्यवाद श्री गुरमेल सिंह जी। माता पिता की भावनाओं और बातों का ज्ञान खुद माता पिता बनकर ही होता है। आना जाना संसार का नियम है। यह इसी प्रकार चलता रहेगा। हमें भी एक दिन संसार से जाना है। हम कहीं बाहर जाते हैं तो वहां की जानकारी करते हैं और उसी के अनुसार तैयारी करते हैं। इसकी तैयारी भी हमें कुछ सोच विचार करके करनी चाहिए। जानकारी देने के लिए धन्यवाद्। सादर।
मनमोहन भाई ,सही कहा आप ने .एक बात और भी इस में ऐड करना चाहूँगा किः अगर हम ने अपने माता पिता को इतना चाहा किः हम उन का हर हुकम मानते रहे ,तो आगे हमारे बच्चे भी हमारे साथ उसी तरह निभा रहे हैं . जैसा बीजा ,तैसा काटा .
बहुत अच्छा। आपने याद दिला दी कि जैसा बोओगे वैसा काटोगे, As you will sow so you will reap. अति उत्तम। यह पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। सादर नमस्ते एवम धन्यवाद्।
विजय भाई , पता तो हम सब को है कि जो आया है, वोह जाएगा भी अवश्य ही और एक दिन हम भी नहीं रहेंगे लेकिन जो वक्त हम को अपने माता पिता के साथ मिलता है, उस का कोई मूल्य नहीं है .
बहुत खूब, भाई साहब ! माता पिता का बिछोह बहुत दुखदायी होता है. पर सभी को एक दिन यह झेलना ही पड़ता है. आपको सेवा का अवसर मिला यही सौभाग्य की बात है.
आदरणीय भाईजी ! बीबीजी की बीमारी के दौरान सेवा करने का आपको अवसर मिला और इस नेक काम में आपको दूसरों की समुचित मदद भी मिली । आप खुशकिस्मत रहे और नयी पीढ़ी के सामने आपने अपने लेख द्वारा एक आदर्श उपस्थित किया है । बीबीजी के देहावसान की बात पढ़ना दुखद लगा । एक और बढ़िया रचना के लिए आपका धन्यवाद !
राजकुमार भाई , यूं तो १९ साल की उम्र तक मुझे बीबी के साथ रहने का सुभाग्य परापत हुआ है लेकिन जो वक्त बीबी के साथ यहाँ रह कर मिला, उस को बार बार याद करते हैं .वैसे भी मां तो सब को पियारी होती है क्योंकि उस ने ही हम को जनम दिया होता है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, आपने एक बार फिर यह बात पक्की करवा दी, कि अचछों को अच्छे लोग मिल ही जाते हैं. बीबी का चले जाना बहुत दुःखद लगा. नायाब व सार्थक एक और कड़ी के लिए आभार.
लीला बहन , मैं खुशकिस्मत ही रहा हूँ किः मुझे समय समय पर अछे लोगों का साथ मिलता रहा .पंजाबी लोग अक्सर कहा करते हैं, इक दर बंद, सौ दर खुल्ले, इस दुनीआं में सभी एक जैसे नहीं होते, कभी एक ने मुख मोड़ा तो दूसरा मिल गिया, शायेद यही जिंदगी है . यह कड़ी भी आप ने पसंद की, आप का धनयावाद करता हूँ .