ग़ज़ल : कभी अपनों से अनबन है
कभी अपनों से अनबन है कभी गैरों से अपनापन
दिखाए कैसे कैसे रँग मुझे अब आज जीवन है
ना रिश्तों की ही कीमत है ना नाते अहमियत रखते
रिश्ते हैं उसी से आज जिससे मिल सके धन है
सियासत में नहीं युवा, पर बुढ़ापा काम पा जाता
समय ये आ गया कैसा दिल में आज उलझन है
सच्ची बात किसको आज सुनना अच्छा लगता है
सच्ची बात सुनने को व्याकुल ये हुआ मन है
जीवन के सफ़र में जो मुसीबत में भी अपना हो
‘मदन’ ये जिंदगी अपनी उसका ही तो दर्पण है
— मदन मोहन सक्सेना