ग़ज़ल
तुम पुष्पराज पंकज समान,
मैं बस सूखी दूर्वा सा हूँ
विद्वता की धार हो तुम,
मैं पथिक ज्ञान का प्यासा हूँ
तुम वेद समेटे वाणी में,
मैं नन्हीं सी जिज्ञासा हूँ
तुम नाद अनाहत सृष्टि का,
मैं केवल ढोल व ताशा हूँ
तुम अलंकृत शब्दावली सी,
मैं सहज सरल सी भाषा हूँ
दुरूह प्रश्न पांडित्य का तुम,
मैं साधारण परिभाषा हूँ
यथार्थ सम तुम प्रखर सूर्य,
मैं सुषुप्त पड़ी अभिलाषा हूँ
तुम सीमाहीन प्रणयसिंधु,
मैं युगों की अतृप्त पिपासा हूँ
प्राण प्रिये किंतु मैं तेरे,
अमर प्रेम की आशा हूँ
— भरत मल्होत्रा