ग़ज़ल
ये अफसाना ज़माने को सुनाना भी ज़रूरी है,
उनका नाम दुनिया से छुपाना भी ज़रूरी है
यूँ तो राज़ मैं अफशां नहीं करता कभी अपने,
मगर रस्म-ए-मुहब्बत को निभाना भी ज़रूरी है
भले ही नाज़ हो कितना अपनी सर-बुलंदी पर,
किसी मखसूस दर पर सर झुकाना भी ज़रूरी है
उल्फत में निगाहों का अहम किरदार होता है,
मिलाना भी ज़रूरी है चुराना भी ज़रूरी है
नए रिश्तों को ज्यादा अहमियत देना भले ही तुम,
पर इतना याद रखना कि पुराना भी ज़रूरी है
फिजाओं में बिखर जाऊँगा खुशबू की तरह से मैं,
कि जितना कर्ज़ बाकी है चुकाना भी ज़रूरी है
— भरत मल्होत्रा