गीत : हे मानव! ना मोह करो तन का
हे मानव! ना मोह करो तन का
है माटी से उपजा ये शरीर,
माटी में मिलने को अधीर,
क्यों आए, कहां से आए हो,
क्या साथ में अपने लाए हो,
नई आशा का आह्वान हो तुम,
इक नवयुग का निर्माण हो तुम,
परंतु तुम राह से भटक गए,
बाह्य सौंदर्य में अटक गए,
किंचित ना भास हुआ मन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
तू है अजन्मा आदि अरूप,
तू ज्योति पुंज भगवद्स्वरूप,
सती का सतीत्व शंकर का ध्यान,
राधा का नृत्य मुरली की तान,
तू नर भी है नारायण भी,
निजांतर से धर्मपरायण भी,
है सत्व सृष्टि के जीवन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
तू अथाह सिंधु, पर्वत विशाल,
संपूर्ण धरा का उन्नत कपाल,
तू है जिसकी महिमा अनंत
क्यों बन के रह गया एक हलन्त,
चहुँ ओर व्याप्त जिसकी सुगंध,
वो दिव्य पुष्प निर्भय स्वछंद,
तू सार है समग्र उपवन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
उत्तुंग शिखर को छूना है,
अभी नित्य हलाहल पीना है,
दुर्गम राहों पर चलना है,
हर कष्ट विश्व का हरना है,
जो क्षुद्र पर रूक जाएगा,
उद्धारक ना बन पाएगा,
है मूल्य तेरे हर एक क्षण का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
है गीता का उपदेश तेरा,
उपनिषदों का संदेश तेरा,
गौतम, महावीर की वाचा है,
तू धर्म की विजयपताका है,
परिवर्तन का आधार है तू,
हाँ, प्रभु का अंशावतार है तू,
है पात्र दैवी अभिनंदन का,
हे मानव! ना मोह करो तन का,
— भरत मल्होत्रा