गीतिका/ग़ज़ल

धरती रोती है

पीर ढो रही पल-पल, धरती रोती है।
नीर खो रही जल-जल, धरती रोती है।

डेरा डाले, ठाठ-बाठ से, बागों में
हँसते हैं जब मरु-थल, धरती रोती है।

भरी बोतलों को, जब सूने नैन उठा
तकते हैं घट निर्जल, धरती रोती है।

जाने कब फिर गले मिलें, पर्वत-झरने
सोच-सोच कर बेकल, धरती रोती है।

पूछा करते, सून पोखरों से जब वे
कहाँ जाएँ हम शतदल, धरती रोती है।

जब-जब नज़र आता उसको सावन में भी
अपना निचुड़ा आँचल, धरती रोती है।

सोच-सोच है चिंतातुर, कैसे सँवरे
नई पौध का अब कल, धरती रोती है।

लौट आए मुस्कान उसकी, यदि सब ढूँढें
अब भी ‘कल्पना’ कुछ हल, धरती रोती है।

कल्पना रामानी

*कल्पना रामानी

परिचय- नाम-कल्पना रामानी जन्म तिथि-६ जून १९५१ जन्म-स्थान उज्जैन (मध्य प्रदेश) वर्तमान निवास-नवी मुंबई शिक्षा-हाई स्कूल आत्म कथ्य- औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद मेरे साहित्य प्रेम ने निरंतर पढ़ते रहने के अभ्यास में रखा। परिवार की देखभाल के व्यस्त समय से मुक्ति पाकर मेरा साहित्य प्रेम लेखन की ओर मुड़ा और कंप्यूटर से जुड़ने के बाद मेरी काव्य कला को देश विदेश में पहचान और सराहना मिली । मेरी गीत, गजल, दोहे कुण्डलिया आदि छंद-रचनाओं में विशेष रुचि है और रचनाएँ पत्र पत्रिकाओं और अंतर्जाल पर प्रकाशित होती रहती हैं। वर्तमान में वेब की प्रतिष्ठित पत्रिका ‘अभिव्यक्ति-अनुभूति’ की उप संपादक। प्रकाशित कृतियाँ- नवगीत संग्रह “हौसलों के पंख”।(पूर्णिमा जी द्वारा नवांकुर पुरस्कार व सम्मान प्राप्त) एक गज़ल तथा गीत-नवगीत संग्रह प्रकाशनाधीन। ईमेल- [email protected]