चर्चा उसी के घर में खज़ाने दबे मिले
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हर मयकशी के बीच कई सिलसिले मिले ।
देखा तो मयकदा में कई मयकदे मिले ।।
साकी शराब डाल के हँस कर के यूं कहा।
आ जाइए हुजूर मुकद्दर भले मिले ।।
कैसे कहूँ खुदा की इबादत नहीं वहां ।
रिन्दों के साथ में भी नए फ़लसफ़े मिले ।।
यह बात और है की उसे होश आ गया ।
वरना तमाम रात उसे मनचले मिले ।।
जिसको फ़कीर जान के करता था एहतराम ।
चर्चा उसी के घर में ख़ज़ाने दबे मिले ।।
मुझ से न पूछिए कि ज़माने से क्या मिला ।
बदले मिज़ाज़ ले के यहाँ सिरफ़िरे मिले ।।
पीना गुनाह था तो शराफ़त क्यूँ छोड़ दी ।
कुछ दाग उसूलों में बड़े बेतुके मिले ।।
बेचैनियाँ सबूत हजारों बता गयीं ।
अक्सर ही सिलवटों में तेरे बिस्तरे मिले ।।
क़ातिल तेरी निगाह में कुछ ख़ासियत तो है ।
दीवानगी में लोग बहुत गमज़दे मिले ।।
हुस्नो शबाब भर के जो बोतल उछाल दी ।
साकी शरीफ़ लोग शराफ़त कटे मिले ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी