कविता

तुम अमर बेल हो

मेरे तन से लिपटी रहती
मेरे मन में रहती
तुम अमरबेल हो
रहती हो संग दिल के अंदर
पोषण तुम्हारा मैं करूं मेरी जड़ें जमी में हैं
तेरी खातिर निस्वार्थ
तुम हंसी खुशी हवा में नित खेलो
यह प्रेम अमर हो तुम मेरी अमरबेल हो
चारों ओर फैली हो मेरे तन के
तुम ही तुम हो मैं बस जड़ हूं
दोनों मिलकर रहते हैं हम हंसी खुशी
तुम्हारा जीवन मेरा हिस्सा दिया हुआ
प्रेम पाश मैं हरपल बँधा हुआ
हवा से बातें तुम करती हो
मेरी जड़ को तुम नित कहती हो
ये राग अमर हो जाता है
तुम में मैं हूं मुझ में तुम
मैं जानता हूं नीचे तुम मेरे ऊपर तुम मेरे संग
तुम अमरबेल हो तुम अमरबेल
दुनिया तुम को कुछ भी कहती
हर दम हर पल तुम संग में रहती
मेरी जगह मैं हूं हराभरा
तुम पीले सोने से मेरे ऊपर रहती हो
तुम अमरबेल हो तुम मेरी अमरबेल
दुनिया कुछ भी कहे मुझे
बस तुम ही याद हो अब मुझे
क्यों कि तुम अमर बेल हो
मेरे जीवन का बँधन तुमसे
छू लो बस जान आ जाये
बस तुझ सा अमरत्व मिल जाये
कोसे दुनिया बेशक
तुम लिपटी रहो मेरे तन मन से
बस छोड़ ना देना
चाहे कुछ भी हो
सुनो अनु
तुम अमर बेल हो

प्रवीण माटी

नाम -प्रवीण माटी गाँव- नौरंगाबाद डाकघर-बामला,भिवानी 127021 हरियाणा मकान नं-100 9873845733