लेख : अपने को पहचानना
मनुष्य अपनी छिपी हुई शक्तियों को पहचाने बिना शक्तिशाली नहीं बन सकता ।जो जैसा अपने को जानता है, वो वैसा ही बन जाता है। अपने को जानना सब सिद्धियों में सबसे बड़ी सिद्धि है । लाखों में से एक होता है जो अपने को जानने का प्रयत्न करता है और उनमें से भी एक होता है जो वास्तव में अपने को पहचान पाता है ।
अपने को पहचानना आसान काम नहीं है । हमारा असली व्यक्तित्व इतना स्पष्ट है, परदों में नहीं रहता, फिर भी वह अपनी इच्छा से इतने परदों में छिपा हुआ है कि उसके असली स्वरूप को जानना बहुत टेड़ा काम है ।
हमारे प्राचीन विचारकों का विश्वास था कि मनुष्य ईश्वर का वरद पुत्र है, अमृत पुत्र है । उसका हृदय ही ईश्वर का मंदिर है । जो अपने को जान लेता है, उसका चरित्र सदा उज्ज्वल रहता है । अपने आचरण की परीक्षा के लिए उसे कहीं बाहर जाने की आवश्यकता नहीं रहती ।आत्मतुष्टि ही उसके लिए कर्तव्य अकर्तव्य के निश्चय में सबसे बड़ी परख है, जिस काम की आज्ञा उसका हृदय स्थित अंत: करण देता है वही काम वह करता है। जब कोई संदेह होता है तो वह अपना दिल टटोलता है । दिल का फैसला ही अंतिम फैसला होता है। हमारा हृदय ही हमारे कल्याण की कामना करता है । हम उससे कुछ नहीं छिपा सकते हैं। वह हमारे विचारों व संकल्पों को देखता रहता है। हम उसे धोखा नहीं दे सकते, वह सदा साक्षी बनकर हमारे हृदय में रहता है । उसकी चेतावनी को अनसुनी करके हम जो भी काम करते हैं, वह पाप समान है । उस का दंड हमें तत्काल मिल जाता है, हमारे मन को शांति नहीं मिलती है।
हमें अपने विशेष गुणों को पहचान कर उनका विकास करना चाहिए । अज्ञानी लोग दूसरे को जानने की कोशिश में लगे रहते हैं और ज्ञानी स्वयं को जानने की कोशिश करते हैं।
अपने महत्त्व को न पहचानने वाला सदैव भटका सा रहता है। जो मनुष्य अपने विशेष गुणों को पहचानता है वह प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति करता हुआ जीवन में सफल होता है ।
किसी शायर ने क्या खूब लिखा है –
न कोई परदा है उसके दर पर,
न रूहे रोशन नकाब में है ।
तू आप अपनी खुदी से ऐ दिल,
हिजाब में है, हिजाब में है ।
— निशा नंदिनी गुप्ता
तिनसुकिया, असम