मेरे कहानी 184
टैक्सी में बैठ कर हम फ्रांसिस एगज़ेविअर चर्च देखने चल पड़े। जब हम छुटियों पर होते हैं और घर से दूर होते हैं तो मन आज़ाद होता है। घर के खर्चों और झंझटों से दूर होते हैं। बिजली गैस टेलीफोन के बिलों की सरदर्दी से मुक्ति होती हैं। पहले पहले जब हम इंग्लैंड में आये थे तो अंग्रेजों को देख कर हैरान होते थे कि यह लोग हॉलिडे पे जाते ही रहते हैं, हम इंडियन बातें करते रहते थे कि यह लोग तभी तो आर्थिक तंगी से जूझते रहते हैं कि यह लोग फज़ूल खर्च बहुत करते थे। बहुत गोरे लोग सारी उम्र काम करते रहने के बाद भी काउंसल के घरों में किराए पर रहते थे जबकि हमारे लोगों ने कुछ ही सालों में अपने अपने खुद के घर ले लिए थे, हमारे लोग काउंसल के घरों में रहना बेइज़ती समझते थे । गोरे हम को महाँकंजूस और पैसे बचाने वाले लोग समझते थे। हम लोग काम करते करते ही जीवन बतीत करते गए। बच्चों की शादीआं कीं, शादीयों पे फज़ुल खर्च किये, उन के बच्चे हुए और नए ज़माने के बच्चों के विचार इंग्लैंड में जन्म लेने के कारण हम से भिन हो गए और बहुत बच्चे मन मानी करने लगे, तो हम बूढ़ों को अब समझ आई कि जो गोरे स्ट्रैस से निजात पाने के लिए हॉलिडे पे जाते थे, वोह सही थे। अब हमारी बृद्ध पीढ़ी भी कुछ कुछ बाहर निकलने लगी। हमारी औरतें जो कभी घर से बाहर काम पे नहीं जाती थीं और जो औरतों ने पहले पहले बाहर काम करना शुरू किया, उन पर नुक्ताचीनी करती थीं और कई तो यहां तक कह देती थीं कि यह औरत का चलन ठीक नहीं था। जब औरतें घर पैसे लाने लगीं तो एक दूसरी की तरफ देख देख काम पर जाने लगीं। अब बूढे हो कर हॉलिडे की समझ आई कि अब हम को अपने लिए भी जीना चाहिए था ।
गाड़ी में बैठे हम बातें कर रहे थे और कभी कभी हंस पड़ते थे क्योंकि हम आज़ाद थे। पेंशनें मिली हुई थीं। बच्चे काम पर लगे हुए थे और वोह खुद हम को कहते थे कि डैड ! ऐंजौए यूअर पैंशन। कुछ सालों से हम लोगों को गोआ की हॉलिडे बहुत रास आ रही थी। गोआ हमारे बाहर बैठे भारतीयों को क्यों रास आया, इस के पीछे भी एक वजह है। 1970 के दौर में पहले पहल हिप्पी लोगों ने गोआ में दर्शन देना शुरू किया था। यह हिप्पी लोग यूर्पी देशों के बिगड़े हुए शहजादे थे, जिन का एक ही काम था, ड्रग्ज लेना, बीच पर चिलम सुल्फे के नशे में मस्त रहना और लंबे लंबे सर के बाल रखना यानी जी भर कर अयाशी करना, जिस में लड़कियां भी शामल थीं। गोवा में ड्रग्ज बहुत सस्ता मिल जाता था और वैसे भी यह लोग अच्छे कपड़ों से दूर रहते थे। गंदे रहना इन लोगों का सुभाव ही हो गया था। समय के साथ साथ यह लोग कुछ धंदा भी करने लगे क्योंकि आर्थिक समस्य तो हर एक की होती है, पैसे के बगैर इंसान कितनी देर रह सकता है ? इन लोगों में अमीर युवक भी थे और इन हिप्पियों की आमद से होटल बनने शुरू हो गए क्योंकि गोआ हॉलिडे स्पॉट बनना शुरू हो गया था। इस से पहले गोआ को कोई जानता भी नहीं था और ना ही गोवा में किसी की दिलचस्पी थी। इन हिप्पियों की एक झलक देवा नन्द ने अपनी फिल्म हरे रामा, हरे कृष्णा में भी दिखाई गई थी जिस में ज़ीनत अमान को एक बिगड़ी हुई लड़की के रूप में फिल्माया गया था, यह हिप्पी लोगों की सही तस्वीर थी,बस यह हिप्पी ऐसे ही होते थे जो फ्री लव में विशवास रखते थे। नशे करने और मौज मस्ती करने के सिवाए यह लोग किसी काम के नहीं थे। समय बदलता गया, हिप्पी भी बदलते गए, कुछ कपडे या दुसरी चीज़ें बेचने लगे और साथ ही गोवा की प्रसिद्धता भी बढ़ती गई। यूरप से लोग गोवा आने लगे और साथ ही बड़े बड़े होटलों की गिनती भी बढ़ने लगी। गोआ पर तो पहले भी युरपीयन प्रभाव था, इस लिए यूर्पीन लोगों को गोआ अच्छा लगने लगा था । इंग्लैंड से गोरे लोग बहुत जाते थे। फिर कोई कोई इंडियन भी इंग्लैंड से गोवा जाने लगा और जब यह लोग आ कर गोवा के बारे में बताते थे तो हमारे लोगों की भी गोवा के बारे में उत्सुकता बढ़ने लगी और अब तो यह आम बात हो गई है। हमारे बच्चे भी बहुत गोवा को पसंद करते हैं और इस का कारण एक ही है कि गोवा हमारा अपना है और यहां आ कर हर जगह अपनापन दिखाई देता है।
हमारा टैक्सी ड्राइवर क्रिश्चियन था और चर्चों के बारे में बता रहा था और बातें बहुत श्रद्धाभाव से कर रहा था। गोवा का कुछ कुछ इतिहास तो मुझे पता था कि गोवा के पहले लोग सब हिन्दू ही थे और पुर्तगालियों ने लोगों को ईसाई बनाने की कोई भी कसर नहीं छोड़ी थी। पुर्तगालियों के बनाये बड़े बड़े चर्च और कैथीड्रल इस का सबूत है। पुर्तगाली नौकरियां देने में भी भेद भाव करते थे, कुछ आर्थिक तंगी और कुछ फ्रांसिस ऐग्जेवीआर जैसे प्रचारकों का जोर, लोग ईसाई बनते ही गये लेकिन एक बात की हमारे लोगों को दाद देनी होगी कि अभी भी हिन्दू बहु गिनती में हैं। ज़्यादा तो याद नहीं, मैंने उस टैक्सी ड्राइवर से बहुत सवाल पूछे थे। मैंने उस को पुछा था कि गोवा में ईसाई कितने थे, तो उस ने 25 % बताया था। ज़्यादा हिन्दू ही थे और मुस्लिम सब से कम थे। एक बात उस ने और भी बताई थी गोवा में बहुत दफा हिन्दू मुस्लिमों की लड़ाइयां हो जाती थीं जब कोई हिन्दू लड़का किसी मुस्लिम लड़की से पियार करता या कोई हिन्दू लड़की मुस्लिम लड़के से पियार करने लगती। फिर दोनों धर्मों के बज़ुर्गों ने मिल कर मशवरा किया कि ऐसे प्रेमियों को मत रोकें और उन की शादी में कोई बाधा न बने। उस के बाद फिर कभी कोई दंगा फसाद नहीं हुआ। यह बात हम सब को बहुत अछि लगी कि अगर सारे भारत में ऐसा हो जाए तो सम्पर्दाएक झगडे कभी होंगे ही नहीं। और आज जब मैं यह लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ कि अगर ऐसा सारे भारत में हो जाए तो लव जिहाद जैसी बातें होंगी ही नहीं और देश के लिए बहुत अच्छा साबत होगा।
फ्रांसिस एगज़ेविअर चर्च को जाने से पहले ड्राइवर हमें एक और छोटे से चर्च को दिखाने चला गया। इस का नाम तो मुझे पता नहीं, शायद उस ने बताया भी होगा लेकिन मुझे याद नहीं। चर्च के बाहर गाड़ी खड़ी हो गई और हम इस के अंदर चले गए। चर्च बाहर से तो ठीक ठाक ही था लेकिन जब भीतर गए तो चारों ओर दीवारों और छत पर नज़र दौड़ाई तो देख कर बहुत अच्छा लगा। जीसस क्राइस्ट की स्लीव पर तकलीफें सहते हुए की पेंटिंग अपने आप में एक मिसाल थी। खिड़कियों के रंग बिरंगे शीशे जो कोई इतिहासक सीन बनाये गए थे, बहुत सुन्दर लग रहे थे। सारे हाल में बैठने के लिए डैस्क रखे हुए थे और सामने प्रीस्ट जिस को ईसाई फादर बोलते हैं की जगह थी और यह जगह एक बड़ी स्टेज जैसी थी, जिस के पीछे धार्मिक कहानियों की पेंट की हुई दीवारें थीं। उस ड्राइवर ने एक बात कही थी, जो मुझे याद नहीं आ रहा कि किया था, यह ही याद है कि इस चर्च की फ्लोर को नई फ्लोर बनाने के लिए खुदाई हुई थी तो नीचे बहुत से कॉफिन निकले थे, इन के बीच में किया था, याद नहीं आ रहा। इस चर्च से निकल कर जब हम बाहर सड़क पर आ गए तो सड़क के एक तरफ बृक्षों के झुण्ड में एक खंडर हुई बिल्डिंग थी। उस ने बताया कि यह बहुत बड़ी हवेली हुआ करती थी लेकिन पुर्तगीजों से लड़ाई के वक्त आदल शाह की तोपों ने इस को उड़ा दिया था।
कुछ मिंट बाद ही हमें एक कैथीड्रल दिखाई देने लगा। इस में जाने के लिए लोगों की इतनी लंबी लाइन थी कि मेरे मन ने तो उसी वक्त कह दिया कि हम इस लाइन में नहीं लगेंगे। जब हम कैथीड्रल की कार पार्क में पहुंचे तो आगे चर्च में जाने के लिए छोटी सी रेल गाड़ी थी जिस के लिए छोटी सी रेलवे लाइन बनी हुई थी क्योंकि यह फासला कोई दो सौ गज़ का होगा। । ड्राइवर ने बताया कि यह रेल डिसेबल लोगों और साथ में उस के संबंधियों को चर्च तक ले जाने के लिए थी और क्योंकि हम सब डिसेबल आदमी (तरसेम )के दोस्त या रिश्तेदार हैं, इस लिए चर्च में जाने के लिए लाइन में लगने की कोई जरुरत नहीं थी। यह तो हमारे लिए ख़ुशी की बात थी क्योंकि लाइन में इतनी देर हम ठहर ही नहीं सकते थे। इस छोटी सी ट्रेन में हम बैठे और सीधे कैथीड्रल के दरवाज़े के नज़दीक पहुँच गए। यह भी हमारी खुशकिस्मती ही थी कि संत एगज़ेविअर के शरीर का प्रदर्शन हर दस साल बाद होता है और हम ठीक वक्त पर गोआ आये थे। मुख दुआर से हम सब इस कैथीड्रल में प्रवेश कर गए। बहुत ही बड़ा हाल था, जिस के चारों ओर पेंटिंग्ज तो थी, साथ ही प्रसिद्ध संतों के बुत्त बने हुए थे। यह कैथोलिक चर्च था और यह भी लिख दूँ कि गोवा में सभी कैथोलिक ईसाई ही हैं, इस का यह ही कारण मैं समझता हूँ कि पुर्तगाल में ज़्यादा कैथोलिक पुर्तगाली ही थे और जितने संत पुर्तगाल से गोवा में प्रचार के लिए आये, वोह सब कैथोलिक ही थे। इस हाल में चलते चलते हम आखर में आ गए, यहां सेंट एगज़ेविअर का शरीर एक शीशे और चांदी के बॉक्स में पड़ा था, और उस के शरीर पर वोही ड्रैस थी जो अंतकाल समय पहनाई गई थी, ड्रैस बहुत ही हाई कुआलिटी मोटे कपडे से बनी हुई थी लेकिन अब पुरानी साफ़ ज़ाहर हो रही थी । कहते हैं कि यह शरीर बिलकुल उसी तरह है और खराब नहीं हुआ। कहते थे सेंट के शरीर में चमत्कारी करामातें हैं। उन की मृतु तो कहीं और हुई थी लेकिन उस का शरीर दो साल बाद गोवा में लाया गया था। यह चर्च चार सौ साल पहले बनाया गया था लेकिन सेंट एगज़ेविअर की मृतु इस से पचास साल पहले हुई थी। अब यह चर्च यूनेस्को की वर्ल्ड हैरीटेज की सूची में है और दुनिआं भर से लोग इस को देखने आते हैं। मुझे एक आदत सी है, हर चीज़ को बड़े धियान से देखने की। मैंने सेंट के शरीर को बड़े धियान से देखा। उस का मुंह हाथ और पैर नंगे थे। पैरों की कुछ उंगलियां ऐसे लग रही थीं, जैसे किसी ने तोड़ ली हों। टांगें ऐसे लग रही थीं जैसे गली हुई लकड़ी हो और बीच बीच में खराब हुई लग रही थी। किसी के विशवास की मैं नुक्ताचीनी नहीं करता लेकिन जो मेरे दिल में होता है और मेरा विशवास है, उस को कहने से झिझकता भी नहीं हूँ। मुझे यह शरीर, एक आम बुत्त जैसा ही लगा, जैसे किसी ने बहुत ख़ूबसूरती से बनाया हो, जैसे मंदिरों में देवी देवताओं की मूर्तियां होती है और देखने में बहुत सुन्दर लगती हैं। जब उस ड्राइवर ने बताया कि कुछ चालाक लोगों ने माथा टेकने के बहाने सेंट की उंगलियां तोड़ लीं क्योंकि लोगों का विशवास था कि सेंट के शरीर में बीमारियां दूर करने की चमत्कारी शक्ति है तो मेरा शक्क यकीन में बदल गया क्योंकि शरीर की कोई हड्डी इस तरह आसानी से टूट नहीं सकती कि ऐसे ही एक झटके से टूट जाए । मैंने इजिप्ट में भी पुराने फैरो के शरीर देखे हुए थे जो हज़ारों साल बाद भी बिलकुल सही हड्डियां दिखाई देते थे। यह शरीर ऐसा नहीं था और यह तो सिर्फ चार सौ साल पुराना ही था। कुछ भी हो, यह इतिहासक चीज़ भी देख ली। पंदरां मिंट से ज़्यादा हम वहां नहीं ठैहरे क्योंकि पीछे बहुत लोग आ रहे थे। हम बाहर आ गए।
अब भूख लगी हुई थी, इस लिए एक शाकाहारी होटल में घुस गए। पूरियों के साथ बहुत सी सब्ज़ियां दाल चटनियां और आखर में पापड़ थे। भोजन खा कर मज़ा आ गया। अब शॉपिंग का मन हो गया। याद नहीं किया किया खरीदा लेकिन एक बात याद है कि जसवंत ने अपने घर के लिए मोर पंख लेने थे। हमें पता चला कि मोर पंख बेचने का उस समय गोवा में बैन था और कुछ दुकानदार चोरी छिपे बेचते थे । बहुत दुकानों पे पता किया, फिर एक दुकानदार बोला कि मोर पंख की एक गठि उस के पास थी लेकिन किसी को हम बताएं नहीं। इस गठि की कीमत उस ने पांच सौ रूपए बताई लेकिन जसवंत उस को तीन सौ रूपए में बेचने को कह रहा था। हमारे लिए तो यह कुछ पाउंड की ही बात थी लेकिन जसवंत मोल भाव करने में बहुत सिरिअस हो जाता है। जसवंत दूकान से बाहर आ गया। हम सब को यह बुरा लगा कि एक तो गोवा में मोर पंखों पर उस वक्त बैन था और दूसरे जसवंत ज़िद्दी हो गया था। इस बात पर कुलवंत भी खीझ सी गई और बोली कि पैसे वोह दे देगी। इस पर अब जसवंत को यह मोर पंख लेने ही पड़े। अब गाड़ी में बैठ कर हम कैलंगूट पहुँच गए। होटल जाने ही लगे थे कि हमारी सब की निगाह कुछ औरतों पर पडी जो छोलिया ( हरे चने ) बेच रही थीं। दो किलो छोलिया हम ने ले लिया। छोलिया, मोटे मोटे चनों से भरा हुआ था। टैक्सी वाले को पैसे दिए और सुबह को फिर आने के लिए बोल दिया। सुबह हम ने अगुआडा फोर्ट देखने जाना था।
कमरे में आ गए और औरतें चाय बनाने लगीं। घर से इलैक्ट्रिक कैटल लाने का हमें बहुत फायदा हुआ था । अब का तो मुझे पता नहीं, उस वक्त इंडिया में बिजली के प्लग्ग होल, गोल होते थे, इस लिए हम इंग्लैंड से ही ऐसा पलग्ग ले आये थे जिस में गोल पिन भी फिक्स हो सकती थीं। चाय बन गई और बिस्किटों के साथ चाय का आनंद लेने लगे। चाय पी कर हम तीनों आदमी तो ताश खेलने लगे और स्त्रीयां छोलिये से हरे हरे दाने निकालने लगीं। पंजाब में जब हम खेती करते थे तो चने भी जरूर बीजते थे और जब थोहड़े पकक जाते थे तो हम इन को इकठा करके, कुछ घास फूस ऊपर डाल कर आग लगा के भूना करते थे। फिर सारे इस धूनी के इर्द गिर्द बैठ कर नाखूनों से छील कर खाते और बातें करते रहते थे । हमारे हाथ काले हो जाते थे लेकिन मज़ा बहुत आता था। पंजाब में इन को होलां कहते थे। हम ने फैसला किया कि हॉलिडे से आते वक्त हम और छोलिया खरीदेंगे और दाने निकाल कर प्लास्टिक के बैगों में भर लेंगे। इंग्लैंड में इतना अच्छा छोलिया मिलता ही नहीं था। कुछ देर हम ने आराम किया और कोई पांच बजे हम होटल से फिर बाहर आ कर रात के खाने के लिए होटलों का ज़ायज़ा लेने चल पड़े। चलता . . . . . . . . . .