ग़ज़ल
बातें दिल की अनसुनी रख लेती हूँ,
आस्तीनों में नमी रख लेती हूँ,
अब चलो ज़िद पे तुम्हारी फिर से मैं,
आँखों में सपने कई रख लेती हूँ,
ऐसे खुल के मिलना भी वाजिब नहीं,
ख़ुद को थोडा अजनबी रख लेती हूँ,
सब बड़े ही फासले से हैं मिलते हैं,
दिल में अपने तुमको ही रख लेती हूँ,
इन ख़लाओं मे जली एक लौ सी है,
रंग उससे केसरी रख लेती हूँ,
अब बजा लगती नहीं खामोशियाँ,
हादसों की खलबली रख लेती हूँ,
जा रही हो तुम ‘शरर’ लौटोगी कब,
इतने दिन लब पे हँसी रख लेती हूँ।।
— अल्का जैन ‘शरर’