ग़ज़ल
मेरे लम्हों पे है कुछ तेरी उधारी बाकी
तभी सीने मे है सांसों की रवानी बाकी
चल उन्ही राहों से फिर से गुज़र के देखें तो
जहाँ रही थी तेरी मेरी कहानी बाकी
न छेड़ किस्सा वफ़ा का ये एक छलावा है
ख़ाक में रूह की कब मिलती नशानी बाकी
तूने ख़ंजर मेरे सीने में उतारा तो मग़र
ऐसी वहशत तेरी आँखों में थी नमी बाकी
शाम ने जब तेरी यादों की गिरह खोली तो
तर्क रिश्तों में भी थी खुशबू पुरानी बाकी
फिर भी उम्मीद ‘शरर’ हर्फ़े तसल्ली के लिए
शब ए फ़िराक शब ए वस्ल सुहानी बाकी।।
— अल्का जैन ‘शरर’