गीत/नवगीत

गीत : ‘हँ-सो’ की गंगा तुम बह कर !

‘हँ-सो’ की गंगा में बह कर, हँसों के उर ध्यान किए;
आते जाते भाव सिंधु में, स्वर सरिता में मिल विहरे !

आयामों में प्राण लिए तुम, प्राणायाम प्रशान्त किए;
सृष्टि चक्र सहसा सुर सिहरे, सप्त चक्र रम शब्द फुरे !
‘हँ’ रथ आ कर शून्य क्षितिज से, प्रविसि अनाहत देह गए;
बापस आ कर हृदय द्वार से, ‘सो’ सुर ले ब्रह्माण्ड गए !

इस विचरण ले अद्भुत सिहरन, भूमा से मन मिलवाए;
‘सो’ फिर ‘हँ’ हो आया बापस, रमण किया वह अभ्यन्तर !
‘हँ’ पुनि ‘सो’ हो विचरा बाहर, गया तत्व आकाश परे;
अहं ‘मधु’ का महत छुआ जिमि, सगुण श्वाँस संयोग किए !

— गोपाल बघेल ‘मधु’