“कुंडलिया”
कुहरे की चादर तनी, ठंड बढ़ी बेजोड़
तपते सूरज ढ़क गए, सूझ सड़क नहि मोड़
सूझ सड़क नहि मोड़, गाडियाँ भरें तिजोरी
झरझर बहते नीर, नैन दहकाय निगोरी
कह गौतम सुन भाय, चले कत निहुरे निहुरे
सिकुड़ी रेखा हाथ, घने छाए हैं कुहरे॥
महातम मिश्रा, गौतम गोरखपुरी