क्षण है बंधु वीरोचित ये संघर्ष प्रलय का
प्रश्न इस समय नहीं पराजय-जय का
नहीं हास व नहीं शोक का न ही मृत्यु-भय का
सतत चुनौती को स्वीकारे ऐसे वज्र ह्रदय का
क्षण है बंधु वीरोचित ये संघर्ष प्रलय का !
शत्रु-दल की नींव हिला दे हम वीरों का गर्जन
बाहु-बुद्धि-बल से करना शत्रु का है मर्दन
निज उर में उत्साह की लहरें करती क्षण-क्षण नर्तन
नहीं हटेगा एक पग पीछे कट जानें दो गर्दन
प्राण-आहूति देते जाना लक्ष्य आज सभी का !
क्षण है बंधु वीरोचित ये संघर्ष प्रलय का !
नहीं झुकेगा शीश हमारा कट कर भले गिरेगा
वीर कभी घुटने न टेके लड़ते हुए मरेगा
वक्षस्थल पर आगे बढ़कर शत्रु-वार सहेगा
रक्त बहाकर रण-भूमि की सूनी माँग भरेगा
नव -घावों से और उबलता अर्णव इनके बल का !
क्षण है बंधु वीरोचित ये संघर्ष प्रलय का !
प्रबल मनोबल इनका मानों जल है आग-पवन है
नहीं काटने से कट पाता शक्तिमान सबल है
क्या होगा परिणाम नहीं चिंतित वीरों का मन है
करना रण-कौशल का उनको क्षण क्षण प्रदर्शन है
जय-पराजय नहीं सदा संघर्ष मूल जीवन का !
क्षण है बंधु वीरोचित ये संघर्ष प्रलय का !
— डॉ शिखा कौशिक ‘नूतन’