बाल दिवस
बाल दिवस का हाल न पूछो, हैं बेहाल सभी बालक ।
चाचा के सब सपने टूटे, मिला नहीं उन सा पालक ।
चिथि चौदहवीं माह नवम्बर, फिर फिर याद दिलाती है ।
मंजिल तक पहुँचे गाड़ी जब, मिलता है अच्छा चालक ।
सजे – सजाये ख्वाब टूटते,बच्चे मागे जाते हैं ।
होटल के जूठे खाने को, मजबूरी में खाते हैँ ।
धूएँ के सँग जीना पड़ता, तथा कथित फैक्टरियों में ।
जीते – मरते रोज बिचारे, आध- अधूरे पाते हैं ।।
दिल्ली इनसे बहुत दूर है, मंगल चंदा सपनों से ।
बात परायों की पूछो, छले गये ये अपनों से ।
कैसे प्रबल भविष्य टिकेगा, इलके जर्जर कंधों पर ।
केवल जीने भर ये पाते, नाप- तौलकर नपनों से ।।
रोटी की चिंता बचपन में, जिनके हिस्से आई हो ।
जिनके कारण ही धनपशु की, होती बहुत कमाई हो ।
बेच रहे जिनके नन्हें कर, खेल – खिलौने रोटी से ।
बचपन में जर्जर के जैसे,मुख पर चिंता छाई हो ।।
फिर भी दम खम भरा हुआ है, इनके नाजुक कंधो पर ।
‘जय भारत’ का मन्त्र गूँजता,स्वाभिमान सम्वादों में ।
बाल दिवस पर भारत माँ की,खाकर करो करो वादा ।
रहे अनाथ न कोई बच्चा, हँसा – खुशी हो यादों में ।।
— अवधेश कुमार ‘अवध’