गीतिका/ग़ज़लपद्य साहित्य

सफर – अब तक 2

तना हो जो शज़र ज्यादा अकड़ कर टूट जाता है
नसीब बे-अदब लोगों का अक्सर फूट जाता है

मक्कारी की चादर में कहाँ पैबंद लगते हैं
ये चहरा आईने सा असलियत सबकी बताता है
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दौलतों की हवस में अपने भी बिछड़ जायेंगे
हाशिये पे ज़िन्दगी है और किधर जायेंगे

गैरों को आके थाम लिया मुश्किलों की राह पे
ये सिफ़त भी ना रही तो और किधर जायेंगे
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उस गली में रहा करता था मुझसा कोई
उस गली में हमारी निशानी अब नहीं

नए है लोग नई नई सी है फ़िज़ाए भी
नए मौसमों में पुरानी कहानी अब नहीं

दुश्मनो की भी जो आबरू बचते थे
अजनबी वो लोग खानदानी अब नहीं
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टूटी कश्ती का किनारों से किनारा हो गया
कल तलक जो शख्स हमारा था तुम्हारा हो गया

इन सियासी मौसमों में तल्खियां भी थी बोहोत
वहम के बादल छंटे फिर से भाई चारा हो गया

फ़ुर्सतें भी लाज़मी थी रब से मिलने के लिए
तैरना छोड़ा, भंवर खुद ही किनारा हो गया
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वो जो बाद-ऐ-सबा चल रही होगी
उनको छु कर मचल रही होगी

ये जो आसमां में सुर्खी है
उनके गालों पे ढल रही होगी

गज़लों ने मेरी आग जो लगाई है
वो सबके सीने में जल रही होगी

अंकित शर्मा 'अज़ीज़'

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