ऐसे माली बनें …
नव वर्ष आने को है, बहुतेरे सैर सपाटे से लौटने को हैं तो बहुतों की योजनाएँ बन रही हैं ।अच्छा भी है , इसी बहाने सही परिवार के सदस्य एक दूजे के लिए समय तो निकल पाते हैं । तो आइये इस नव वर्ष पर मेरे साथ आप भी संकल्प लें की धन दौलत तो बहुत कमा लिया भरोसा नहीं , बुरे वक्त में साथ दे या नहीं….. इसलिए फूलों की वाटिका से जो संस्कार हमे मिले या हमसे अछूते रह गए उन्हें ढूँढ़कर सहेज लें और अपनी अगली पीढ़ी को भी उसी सघन छाहँ में बैठाकर अपना जीवन संवार लें । आज माता पिता के पास बच्चों को देने के लिए तमाम ऐशों आराम हैं ….बच्चे भी आज के बहुत ज्यादा स्मार्ट हैं , फिर भी हम गाहे बगाहे पातें हैं कि कहीँ कोई सूनापन हमारे आस पास छितरा है ।
हम सब कुछ होते हुए भी उतने प्रसन्न नहीं हैं जितने हमारे माता पिता होते थे । भौतिकता हर जगह हावी है । आत्मीयता ढूंढे से दिखाई नहीं देती । सारे रिश्ते पैसों व सुख सुविधाओं पर आकर ठहर जाते हैं । ‘ऐकला चलो’ की भावना जोर पकड़ती जा रही है । ‘स्व’ ही ‘स्व’ है, ‘पर’ का कोई स्थान नहीं । क्या ऎसे ही जीवन की कल्पना हमने की थी ? निश्चित ही नहीं । दरअसल जीवन की आपाधापी में भागते हुए हम कब खुद से ही इतने दूर हो गए कि हमे भी पता नहीं चला ।पर अब बस । हमे इस भौतिकता का जीवन नई पीढ़ी को नहीं देना है बल्कि उन्हें सहेजना है…. संवारना है…. पुष्पित और पल्लवित करना है… संस्कारों के वृक्ष से…..जब वे चलें तो उनकी सुगंध दूर दूर तक फ़ैल जाये….. जो भी पास से गुज़रे…. तो वह भी महक उठे…. और पूछ बैठे तुम्हारा माली कौन है ?
— शशि बंसल, भोपाल