ग़ज़ल
आज हर मंजर यहाँ बदला हुआ सा लग रहा
गुलशने शादाब भी सेहरा हुआ सा लग रहा
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ख्वाब भी अब साजिशों का हाथ थामे चल रहे
इक समंदर आँख में ठहरा हुआ सा लग रहा
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दुश्मनी का सिलसिला क्यूँ खत्म होता है नहीं
प्यार का रिश्ता ही क्यूँ टूटा हुआ सा लग रहा
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तीरगी ने भी सितम ढाया है हम पर इस कदर
रोशनी का वर्क भी सहमा हुआ सा लग रहा
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बेरुख़ी ही तो मिली है इस शह्र से आजतक
शोर दिल में दर्द का बरपा हुआ सा लग रहा
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हम तो कर बैठे अकीदा उसको अकरब जान कर
शख्श वो ही तो हमें डसता हुआ सा लग रहा
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दिख रहा है जा-ब-जा बस अक्श तेरा ही हमें
अब “रमा” ये फ़ासला मिटता हुआ सा लग रहा
रमा प्रवीर वर्मा ….