“गजल”
काफ़िया- री, रदीफ़- अगी, मात्रा- भार-22
मुझको लगती भली मेरी दीवानगी
चाहे दुनिया कहे इसको आवारगी
छाए मौसम सुहाने मेरे बाग में
कब मिली पाक ऋतुओं री परवानगी॥
धुंध उठने लगी है रुख हवाएँ चली
आँधियाँ भी चलेंगी ये खरी वानगी॥
लोग रुकते कहाँ हैं अब किसी के लिए
हर निगाहों में दिखती उभरी हवानगी॥
ये दिल तो खिलौना है सभी के लिए
खेले दिल से औ करते निरी रवानगी॥
मायुसी रास आती कब हारे हुए को
बाजी बिगड़ी कभी तो भरी विरानगी॥
तोड़ा करते खिलौना अहम के लिए
खुद कहते यही है मेरी मर्दानगी॥
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी