कहानी

कहानी : पैमाइश

बड़े भोरे भोरे बुढ़ौती में ई टेंघना आज कौन कारज हिला दिए रमई भाई, कोई विशेष प्रयोजन? दुवारा बहारते हुए हिरामन बाबा की रुआबदार आवाज कई घरों तक खरखरा गई।……पाँव लागी बबुआ…..आशीर्वाद लिए बहुत दिन हो गया सरकार……. आज पोखरे की मप्पी होगी क्या बबुआ……! कल से यह खबर चौराहे पर जोर-शोर से मधुमक्खी की तरह भनभना रही है। हाँ रमई भाई….. उ क्या है न कि पोखरे की चौहद्दी सिकुड़ गई है और सरकार की नियत उसे चौड़ा करने की है। बाकी गाँव और पोखरे से तो तुम्हारा पुस्तैनी नाता है, सबके रसोई का आंटा- दाल तुम चख ही चुके हो।शायद उसी स्वाद के खातिर आज भी आस लगाए हुए हो। बहाना मिला तो बुढ़ौती फिर से जवान हो गई और जरीब खींचने आ गए, हा हा हा हा हा…..है न रमई भाई। का बाबू, आप भी…..हूँ हूँ हूँ हूँ हूँ, कोई मौका हाथ से जाने नहीं देते। पंचायत तो कोई आप से सीखें, किसका पलड़ा आप के तराजू में वजन हुआ है, कुछ हम भी तो जाने, सरकार……..

बँटखरा और तराजू का जमाना कबका तुम्हारे जैसा पुराना हो गया रमई भाई। अब तो सरकारी कागज ही वजनी हो गए हैं। हाथ कंगन को आरसी क्या, पढ़े लिखे को फारसी क्या…..थोडा धीरज धरो, अपनी आँखों से देख लेना, आज गाँव के सभी पोखरे और गड्ढे अपने अपने पूर्ण रूप का खुलकर दीदार करवाएंगे। जिसमे कइयों की हुलिया बदल जाएगी तो कइयों का नक्शा भी सार्वजनिक हो जायेगा। आराम से तख्ते पर आसन लो, पुलिस-दरोगा, कानूनगो-पटवारी और पंच परमेश्वर सभी आने वाले हैं। कोई नहीं जानता लोहे की खनकती जरीब कहाँ-कहाँ अपना झूमर गिराएगी।

बाबा…..बाबा….चाय और पानी तख्ते पर रख दिया है। जल्दी से पी-पिला लीजिए, वरना ठंडी हो जायेगी। चलो रमई भाई चाय पी लो, छोड़ों पोखरा-पोखरी, नौ मन की गंदगी नाक फुला देती है। चाय तो बहुते बढियां बनी है बाबू, आदी भी पड़ी है, दिन सुधर गया…….पर बाबू एगो बात कहें….. ई पोखरा भी अब बड़का बवाल हो गया है बबुआ। गाँव के अधिकतर नाबदान अब इसी में बहते हैं। गंदगी का जमावड़ा हो गया है अब तो इसका सिंघाड़ा भी व्रत में खाने लायक नहीं रहा। जबसे पट्टा हुआ है न मछली मिलती न गाँव को सिंघाड़ा ही मयस्सर होता है। मैं भी तमाशा देखने ही आया हूँ पोखरे और सिंघाड़े का रिश्ता टूटे तो वर्षों हो गया। इसी बहाने दूध वाली चाय मिल गई, बनल रहे ई दरबार………

बाबू देखा जाय तो हमरन के बचपन से लेकर जवानी तलक, गाँव-गिरांव के हर दिन मनोरंजन से भरपूर हुआ करते थे। बरसात में टप टप टपकती मंडई के साथ, बाग़ के झूले और कजरी मनमोह लिया करते थे तो गर्मी में लू से तिलमिलाती पलानी, बारात की रौनक और नौटंकी की हारमोनिया के साथ खूब ताल मिलाते थे। ठंड की बात ही निराली थी। रजाई से झांकती हुई रुई और छप्पर से झुरकती हुई पोखरे की भीनी हुई पवन हाड़ कँपा देती थी, पर क्या मजाल था कि किसी की नाक बह जाय। हाँ ये बात और थी कि लाइलाज टी. बी., खाँसते- खाँसते बलगम का हुलिया बिगाड़ देती थी और कइयों की विदाई, होली आते आते हो ही जाती थी। जिसे सर्दी की मेहरबानी समझ कर मूली, कचरस और सिंघाड़े का रसास्वादन करते हुए, पूस- माघ में बिना चूल्हे का जीवन, सूरज की आँख मिचौली के बावजूद भी कौड़े पर हाथ सेंकते हुए गरम हो ही जाते थे। अब तो नमकीन चाय, मानों सदाव्रत हो गया है सबके यहाँ छलक रहा है।

सही कह रहे हो रमई भाई बदलाव तो खूब हुआ है, पुराने दौर में, कोई भी मौसम हो गाँव के पोखरे और तालाब पर्यटन स्थल का काम करते थे। बरसात में उलटी बहती हुई मछलियों का शिकार, बड़े बूढ़ों से लेकर बच्चों तक का मनोरंजन कर दिया करते थे तो गर्मी में हर हर गंगे वाली डुबकी लगाकर लोगबाग शीतल हो जाया करते थे। जब बारी ठण्ड की आती थी तो क्या काश्मीर क्या नैनीताल, सब फीके पड़ जाते थे। पोखरों के किनारे तुम्हारे पिता जी, लखीमन काका की झुग्गी पड़ जाती थी और पोखर डलझिल बन जाता था। सिंघाड़े की हरियाली मनमोह लेती थी और काका की लचकेदार कहानियाँ शाम गुलजार कर देती थी। कुछ दिन बाद काका रुपये किलो सिंघाड़ा तौलते और काकी गाँव में घूम-घूम कर वसूली करते हुए, तंग गलियों को गुलज़ार कर देती थी। हँसना, बोलना-बतियाना, मजाक- मसखरी सबमें दक्ष थी। बच्चों का भी खूब ध्यान रखती थी किसी को खाली हाथ नहीं लौटाती, हर बच्चों के हाथ में दो दो सिंघाड़ा पकड़ा ही देती थी। एक नंबर की बनिया थी, बच्चों को सिघाड़े का स्वाद चखा देती थी और बच्चे खरीददार हो जाते थे। इसी बहाने बड़े लोग भी कड़े- मुलायम सिंघाड़े को दांतों में दबा लेते थे, बरना खाने का अनाज, बैसाख आने पर पोखरे पर क्यों जाता, जहाँ का पानी तो कबका सूख गया होता था और सिंघाड़े की हरियाली भी। हा हा हा हा हा क्या रंगीन जमाना था?…….तुम भी कम नहीं थे। रमई भाई, खूब मुफ़्त का सिंघाड़ा सरियाकर तौलते थे। जमुनिया का क्या हालचाल है, बड़ी तेज तर्रार थी, उसकी नजर से कईबार तुम पकड़े गए।……. छोड़ों न बाबू अब उ सब याद करके मन न बिगाड़ो। जमुनिया दीदी ठीक है……
लो, आ गई पुलिसिया जीप…..आइए आइये थानेदार साहब……कुर्सी ले लो रमई भाई, दलानी में रखी है……जल्दी…..आज लगता है पैमाइस हो ही जायेगी साहब…..??????……ऊपर से बहुत दबाव है बाबा, आदेश का पालन करना ही पड़ेगा। आज मौके पर डी. एम. साहब मौजूद रहेंगे…….जलाशय पर कोई रियायत नहीं है अब जिसने भी दबाया है उसे छोड़ना ही पड़ेगा……

थोड़ी देर में पोखरे के किनारे मजमा लग गया, भीड़ में हेरा गए रमई काका और हिरामन बाबा, डी. एम. साहब के आगे पीछे हाँ में हाँ मिलाते रहे…..शाम को लगभग पाँच बजे तक जरीब खनकती रही और खूंटे गड़ते रहे। किसी का ओसारा तो किसी की सहन सिकुड़ गई……डी. एम. साहब ने इतना जरूर कहा कि पूरा का पूरा गाँव गड़ही और पोखर पर फ़िदा है अब यह नहीं चलेगा, तीन महीने के अंदर कब्ज़ा खाली नहीं हुआ तो कइयों को जेल की हवा खानी पड़ेगी और पोखरे की शीतल हवा जुरमाना भरवा के छोड़ेगी…….हुर्र हुर्र करके सभी गाड़ियां निकल गई……दूसरे दिन कई छप्पर और पेड़ धराशायी हो गए…..अब प्रधान जी और मनरेगा, धीरे धीरे फावड़ा चला रहें है जे.सी.बी. से काम करवाना मनरेगा के मजदूरों का अधिकार हनन है। फिर भी रमई काका के साथ ही साथ कइयों को अभी भी पोखरे से गहरा लगाव और उम्मीद है तो शुद्ध शीतल जलवाली हवा की कामना भी। हिरामन बाबा के अपने आदमी का पट्टा अपने वजूद पर कायम है जिसमें मछलियां पलती रहेगी…..दुकान चलती रहेगी……उधर कई अपनों की चाहर दिवारी पर खुद के हाथों ही हथौड़ा देखकर हिरामन बाबा की मुस्की खूब मलका रही है……

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ