औरत
हाँ आज मैनें
खुद ही सुलझाएं है
प्रातः बिस्तर की सिलवटें
खुद ही मांजा है
रसोई घर के सिंक में पड़े
झूठे अस्त व्यस्त बर्तन
पता नहीं पत्नियाँ
कैसे साफ कर पाती है
हर रोज घर का
हर कमरा
और कभी छूटता भी नहीं
कोई कोना
झाडू लगाते वक्त
आज मैने भी
ठीक वैसे ही लगाए है
फूल वाली झाडू
बिना किसी स्थान के छोड़े
माँ के लिय खुद ही
एल्युमिनियम वाले सस्पेन में
उबाला है पानी
थोड़ा नमक डालकर
कि गार्गिल के बाद
थोड़ी तो रूक कर आए
उनकी खांसी
पापा की दाढी बनाने का सामान
हर दिन पत्नी की भांति
रखना था मुझे आज
आज रसोई में
पकाना था बिल्कुल ही सादा
साकाहारी भोजन कि
कहीं बहुत ज्यादा
मुश्किल न हो मुझे
पर इतना आसां भी नहीं होता
रोटियों का गोल होना
और फिर उसका
गुब्बारे सा फूल जाना
अभी बच्चे तो नहीं
शायद इसलिए बच गया मैं
उनके लंच पैक करने
और विधालय तक
छोड़कर आने से
और हाँ फिर उनके
होमवर्क करवाने से भी
सोचता हूँ
दफ्तर की चंद फाइलों से
उलझे लोग
या फिर रोज टारगेट के बोझ तले
दफ्तर का दबाव लिए
खुद को बहुत
क्रमठ और कर्तव्यनिष्ठ समझने वाले
मुझ जैसे लोग और हमारा काम
क्या पत्नियों के कार्य से बड़ा होता है ?
हर रोज हमारा तय वक्त पर
दफ्तर पहुंच जाना
एक रोज के लिए ही सही
पर अगर जी सको तो
कभी तुम भी जी के देख लो
उनकी जिंदगी
वो हर पहर परिवार की फिक्र में
जागती और सोती है
औरत खुद ही में
एक दफ्तर होती हैं
अमित कुमार अम्बष्ट ” आमिली “