खेल….
बच्चों की टोली
लगती हैं प्यारी
रंग बिरंग के खेल
खेलते हैं बिन मेल
लूका छिपी दौड़ा दौड़ी
बताऊं कितने खेल का नाम
सब उनके मन को भाता
खेल के आगे बच्चों को
कुछ नही सुहाता
खाने की फिकर नहीं
नहीं नहाने को रहता है
अपने शिक्षक के डर से
स्कूल जाने के लिए बस
तैयार होना आता है
मां पिछे लगी रहती
अपने बच्चो को खिलाने को
बच्चों को होश कहां
खेल से छुटकारा पाने को।
निवेदिता चतुर्वेदी’निव्या’