कविता – मेरा गाँव
अपने गाँव की मिट्टी भी इतनी ही सुहानी है
जैसे बूढे काका की परियो की कहानी है …
लगे तो पेड बडे शहर मेँ भी थे ,
पर पुराना बरगद अपने चौपाल की निशानी है …
मौसम के बदलावो को यहाँ महीनो का इंतजार नही ,
सावन मेँ झडते पत्तो की शायद ये कुर्बानी है …
पुरवे मेँ देखो वो झोपड , सिल पर बाट चलाती जिसमेँ बैठी मेरी नानी है …
घूँघट ओढ उपले पाथे जो , वो प्यारी मेरी मामी है …
पास बैठ गन्ने के रस को , मै पीता जैसे पानी है …
अपने गाँव की मिट्टी भी इतनी ही सुहानी है …
याद चैन है अब तलक यहाँ का ,
भोले , पिँटू साथ सखा का ,
अरे , अब तो अपनी परबतिया भी सयानी है ,
अपने गाँव की मिट्टी भी इतनी ही सुहानी है ।
नही तारीफ गाँव की ये तो सच्ची जुबानी है ,
मै तो ये अब कह रहा हूँ जाने कब से ये बयानी है …
अपने गाँव की मिट्टी भी इतनी ही सुहानी है …
— नमन भल्ला