वृद्धाश्रम
व्यथित मन और
लाचार जज्बात…
बिछोह संतान का
सह न पाएँ !
हर आहट पर,,,
लिए आस
वृद्धाश्रम के दर को
तकते जाएँ !
स्मृतियों की चादर और
एलबम के पन्ने…
अब भी मुकम्मल
जहान दिखलाएँ !
अजनबी लोगों में
अपनों को खोजें,
मन की पीड़ा
किसे सुनाएँ ! !
पाला था
जिनको नाज़ों से
उन्हें शूल से अब
खटकते हैं !
रहतें हैं वे,
अपने महलों में !
वृद्धाश्रम में बजुर्ग
भटकते हैं ! !
कहने को तो
वृद्धों के लिए…
न जाने कितने हैं
बने कानून !
पर हर पल, हर इक क्षण
अपनों के बिना
अरमानों का होता है खून !!
जरा सोचिए ! ! ! !
अंजु गुप्ता