गीत : वनपाखी
मन उड़ता था वनपाखी बनकर
हवा, पेड़, फूल – पत्तों से,
बातें करता था जमकर
रोज सवेरे उठकर माँ से
कहता था हंसकर
तू भी तो उड़ वनपाखी बनकर …
मन उड़ता था वनपाखी बनकर
चूल्हे -चौके की अनबन में,
करती हो क्यूं झगड़ा दिनभर
छौड़ सभी की चिंता, माँ तू
जी ले तू भी जी भरकर …
तू भी तो उड़ वनपाखी बनकर
मन उड़ता था वनपाखी बनकर
हो गई इक दिन कौख पराई
ले गया कोई साथी बनकर
आया था जो साथी बनकर
निकला वो तो बहेलिया
तोड़ दिए सब मन के पांखी
उड़ गया मन वनपाखी बनकर
रह गया ग़म साथी बनकर
अब सोचूं हूँ ‘चंद्रेश’ क्यूं जलती थी
माँ दीये-सी बाती बनकर
मन उड़ता था वनपाख़ी बनकर
— चन्द्रकांता सिवाल ‘चन्द्रेश’