उपन्यास : शान्तिदूत (चौबीसवीं कड़ी)
उसी रात्रि को अपने कक्ष में अपने पलंग पर लेटे हुए कृष्ण बहुत गहरे विचारों में डूबे हुए थे। उनके मस्तिष्क में तरह-तरह के विचार बहुत तेजी से आ-जा रहे थे।
अब जबकि दोनों पक्षों की ओर से दूतों का आवागमन हो चुका है और युद्ध रोकने की सभी संभावनायें समाप्त हो गयी हैं, तब युद्ध अपरिहार्य हो गया है और दोनों पक्ष मानसिक-शारीरिक हर दृष्टि से युद्ध के लिए तैयार हो चुके हैं। अगर यह युद्ध हुआ, जैसी कि संभावना है, तो उसमें बहुत भयंकर विनाश होगा। भगवान वेद व्यास ने इस विनाश का जो चित्र खींचा था, वह अतिरंजित नहीं है। जन-धन की हानि तो हर युद्ध में होती ही है, लेकिन यह युद्ध जो हमारे सिर पर आ गया है, किन्हीं दो सेनाओं के बीच का साधारण युद्ध नहीं है। यह एक महायुद्ध है, जिसमें सम्पूर्ण आर्यावर्त और उसके आस-पास के कई देशों की सेनाएं और योद्धा आपस में भिड़ने के लिए तैयार हो रहे हैं।
इस महायुद्ध किंवा विश्वयुद्ध में विनाश ही नहीं महाविनाश होगा। दोनों ओर के योद्धा अत्यन्त विनाशकारी अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित हैं। कई अस्त्र-शस्त्र तो ऐसे हैं, जो पल भर में सहस्रों सैनिकों का संहार कर सकते हैं। यों तो मानव के विरुद्ध युद्ध में ऐसे दैवीय अस्त्रों का प्रयोग करना वर्जित है, लेकिन युद्ध की विभीषिका और उत्तेजना में सारे नियम रखे रह जाते हैं। पराजित होने वाला पक्ष हताशा में कोई भी संहारक अस्त्र चला सकता है और सम्पूर्ण विश्व के अस्तित्व को खतरे में डाल सकता है।
इस युद्ध के कारण जल-थल-नभ सहित सम्पूर्ण वायुमंडल का प्रदूषित होना अपरिहार्य है। यह प्रदूषण दीर्घकाल तक बना रह सकता है और पेड़-पौधों, जीव-जन्तु ही नहीं स्वयं मानव का अस्तित्व समाप्त होने का कारण बन सकता है। भगवान वेदव्यास ने इन सभी संभावनाओं का आकलन कर लिया होगा, तभी तो वे युद्ध को रोकने के लिए इतनी भाग-दौड़ कर रहे थे। साधारण युद्धों की ऐसी चिन्ता नहीं की जाती। युद्ध पहले भी हुए हैं, परन्तु कभी भगवान वेदव्यास जैसे महर्षि ने उनको रोकने के लिए इतना प्रयास नहीं किया।
कृष्ण सोच रहे थे कि इस महायुद्ध में मेरी भूमिका क्या होगी? निस्संदेह मुझे पांडवों ने अपने पक्ष में कर लिया है और यदि युद्ध हुआ तो मैं उनकी सहायता करने के लिए वचनबद्ध हो गया हूँ, इसलिए सहायता करूँगा ही, भले ही मैंने स्वयं अस्त्र-शस्त्र न उठाने की घोषणा कर रखी है। क्या इस युद्ध में मेरी भूमिका एक साधारण योद्धा या सलाहकार की ही रह जायेगी? क्या इतना ही मेरे लिए पर्याप्त होगा? क्या मुझे इस महाविनाश का मूकदर्शक बने रहना उचित होगा? इतिहास मुझे किस रूप में याद रखेगा?
कहीं इतिहासकार इस सर्वनाशी महायुद्ध का सारा दोष मेरे ऊपर तो नहीं डाल देंगे? कहीं वे यह तो नहीं कहेंगे कि कृष्ण ने समर्थ होते हुए भी युद्ध को रोकने का प्रयास नहीं किया? इतना ही नहीं कोई इतिहासकार तो यह भी कह सकता है कि अपने स्वार्थ के लिए कृष्ण ने ही सगे चचेरे भाइयों को आपस में लड़वाकर मरवा दिया। उनके पास ऐसा कहने का पर्याप्त कारण भी होगा। मेरी सारी सेना एक पक्ष में है और मैं स्वयं दूसरे पक्ष में हूँ, अतः उनका यह मानना निराधार नहीं कहा जाएगा कि कृष्ण ने ही दोनों पक्षों को सहायता देकर युद्ध करने के लिए उकसाया था।
यद्यपि मैं जानता हूँ कि इसमें लेशमात्र भी सत्य नहीं है। मैं कभी नहीं चाहता कि ऐसा युद्ध हो, लेकिन इतिहासकारों का मुँह कौन बन्द कर सकता है? निन्दा करने वालों ने तो भगवान श्री राम के पावन चरित्र पर भी अनुचित आक्षेप किये हैं। मेरे बारे में भी इस प्रकार की झूठी कहानियाँ प्रचलित हो जायें, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। इस प्रकार की निन्दा से बचने के लिए ही नहीं, वरन् एक समर्थ और सम्मानित व्यक्ति के रूप में मुझे युद्ध रोकने के लिए प्रयास अवश्य करना चाहिए। कम से कम कोई यह तो नहीं कह पायेगा कि कृष्ण ने युद्ध रोकने का प्रयत्न नहीं किया। अन्य सम्भव आक्षेपों के लिए मैं कुछ कर भी नहीं सकता। लेकिन जितना मैं कर सकता हूँ, उतना तो मुझे करना ही चाहिए।
लेकिन क्या मेरे प्रयास से युद्ध रुक जायेगा? जिस प्रयास में भगवान वेदव्यास जैसी महान् विभूतियां असफल हो गयीं, उसमें मेरे सफल होने की सम्भावना कितनी है? भगवान वेदव्यास तो कौरवों-पांडवों के पूर्वज भी हैं। उन्हीं के अंश से नियोग से कौरवों-पांडवों के पिताओं की उत्पत्ति हुई थी। वे पितामह के रूप में कुरुवंश में सम्मानित भी हैं। कुरुओं में श्रेष्ठ भीष्म भी उनका बहुत सम्मान करते हैं। परन्तु दुर्योधन ने उनकी बात भी नहीं सुनी और पांडवों को उनका अधिकार देकर युद्ध रोकने से स्पष्ट मना कर दिया। जिस दुर्योधन ने भगवान वेदव्यास की भी नहीं सुनी, वह मेरी क्या सुनेगा? मैं तो उनका एक साधारण सा सम्बंधी हूँ। वह भी पांडव के पक्ष का। इस स्थिति में मेरी बात वह क्यों सुनेगा? अगर मैं प्रयास करूँ भी तो उस प्रयास का असफल होना लगभग निश्चित है।
लेकिन क्या असफलता के डर से मुझे प्रयास करना ही नहीं चाहिए? अगर मैं असफल हो भी गया, तो क्या मेरा सम्मान कम हो जाएगा? मनुष्य अपने कार्यों में सफल भी होता है और असफल भी। इससे क्या अन्तर पड़ता है? उत्तम श्रेणी के मनुष्यों को प्रयास तो करना ही चाहिए। भले ही लोग मुझे जीवित भगवान कहते और मानते हैं, लेकिन मैं जानता हूँ कि मैं भी अन्य मानवों की तरह एक मानव हूँ। यद्यपि मुझे अपने जीवन में बहुत सी उपलब्धियां मिली हैं। लेकिन मेरा मूल्यांकन केवल व्यक्तिगत उपलब्धियों के कारण नहीं, बल्कि समाज पर उनके प्रभाव के अनुसार किया जाएगा। इसलिए चाहे मेरे प्रयास सफल हों या असफल, मुझे युद्ध रोकने का प्रयास अवश्य करना चाहिए।
युद्ध का विषय किसी एक पक्ष पर निर्भर नहीं है। यह दो पक्षों का विषय है। अगर केवल एक पक्ष को इसके लिए तैयार करना होता, तो मैं सरलता से पांडवों को युद्ध से विरत रहने के लिए सहमत कर लेता। युधिष्ठिर आदि सभी पांडव मेरे ऊपर बहुत विश्वास करते हैं। अगर मैं उनसे कह दूँ कि आप युद्ध करना छोड़कर और राज्य की इच्छा त्यागकर वन में ही भटकते रहिए, तो वे निश्चित ही इसके लिए भी तैयार हो जायेंगे। वे मेरे ऊपर इतना विश्वास करते हैं। लेकिन मैं ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि ऐसा करना पांडवों के साथ घोर अन्याय होगा। वे बचपन से ही अन्याय और अभावों का सामना करते रहे हैं। अब इस अन्याय को रोका जाना चाहिए।
पांडवों को युद्ध से विरत करना दुर्योधन की अनीति को बढ़ावा देने के तुल्य होगा। मैं यह अपराध नहीं कर सकता। इसलिए यदि युद्ध को रोकना है, तो मुझे दूसरे पक्ष को तैयार करना पड़ेगा कि वे पांडवों को उनका अधिकार दे दें और पूरे देश को विनाश से बचायें। यदि मैं उनको सहमत करने में असफल भी रहता हूँ, तो भी मुझे कोई ग्लानि नहीं होगी, वरन् मुझे संतोष ही रहेगा कि युद्ध रोकने का मैंने अपनी पूरी सामर्थ्यभर प्रयास किया।
अब प्रश्न उठता है कि यदि दुर्योधन पांडवों को इन्द्रप्रस्थ देने के लिए तैयार हो जाता है, जिसकी संभावना बहुत ही कम है, तो क्या होगा? फिर तो पांडव इन्द्रप्रस्थ में जाकर अपना राजकाज संभाल लेंगे। परन्तु क्या द्रोपदी इससे संतुष्ट हो जाएगी? कौरवों की राजसभा में उसका जो घोर अपमान हुआ था, क्या वह उसे भूल जाएगी? उसने अपने बालों को तब तक खुला रखने की प्रतिज्ञा की है, जब तक कि दुःशासन के रक्त से उनको न धो लिया जाए। उसकी इस प्रतिज्ञा का क्या होगा? द्रोपदी मुझे अपना बड़ा भाई मानती है। सुभद्रा और द्रोपदी मेेरे लिए एक समान हैं। द्रोपदी के अपमान का मुझे भी बहुत दुःख है, लेकिन यदि बिना युद्ध के ही पांडवों को उनका अधिकार मिल जाता है, तो मैं द्रोपदी को उसका अपमान भूलकर दुर्योधन और दुःशासन को क्षमा कर देने के लिए सहमत कर लूँगा। वह अपने बड़े भाई की इतनी बात अवश्य मान जाएगी।
इसी प्रकार मैं महाबली भीम और अर्जुन को भी उनकी प्रतिज्ञाएं भूल जाने और दुर्योधन, दुःशासन, कर्ण सभी को क्षमा करने के लिए तैयार कर लूँगा। ‘क्षमा वीर का भूषण है।’ यह कहकर मैं उनके रोष को थाम लूँगा। लेकिन इसकी आवश्यकता तो तभी पड़ेगी, जब दुर्योधन पांडवों को इन्द्रप्रस्थ देने के लिए तैयार हो जाए। यह एक असम्भव सा कार्य है। लेकिन मैं प्रयास अवश्य करूँगा। मैं कल ही पांडवों को इसकी सूचना दूँगा और यदि संभव हुआ तो कल ही उनके दूत के रूप में हस्तिनापुर की ओर प्रस्थान करूँगा। इसका परिणाम चाहे जो हो, लेकिन मैं अपना कर्तव्य अवश्य करूँगा।
(जारी…)
— डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
बहुत अच्छी रचना आगे की कड़ी का इंतजार है
धन्यवाद, बहिन जी.
मज़ा आ रहा है , आगे का इंतज़ार है
आभार, भाई साहब.