गीत:कर्मयोगी कृष्ण को मुँह मोड़ना है
ज़िन्दगी जीना है, तुमको छोड़ना है
एक तिनके से हिमालय तोड़ना है
बंद दरवाजे निकल सकता नहीं हूँ
मैं तुम्हारे साथ चल सकता नहीं हूं
पर टँके जो चित्र मन दीवार पर हैं
मैं उन्हें भी तो बदल सकता नहीं हूं
बस दीवारों से मुझे सर फोड़ना है
मुश्किलों के सामने झुकना नहीं है
अब किसी के भी लिये रुकना नहीं है
टिमटिमाता मैं दिया हूँ तेल कम है
दिन निकलने तक मुझे बुझना नहीं है
गर्म मरुथल और मुझको दौड़ना है
हैं प्रतीक्षा में अभी वीरान पनघट
और मधुवन में अभी है शेष आहट
फिर अभी राधा खनक करके हँसेगी
प्रेम सावन में भरेंगें रीते मन-घट
कर्मयोगी कृष्ण को मुँह मोड़ना है
— प्रवीण श्रीवास्तव ‘प्रसून’