ढाई बजे की बस
इतनी रात का सफर किसे अच्छा लगता है भला? मगर क्या किया जाए? वहाँ के लिए बस ही रात को दो बजे मिलती है। वह भी इस शहर से नहीं बल्कि दूसरे शहर जाकर। यह तो वैसे भी कोई शहर नहीं है, कस्बा है कस्बा।
रेखा उस सुनसान बस अड्डे के उस एक मात्र प्रतीक्षालय की ओर ताक रही थी जहाँ प्रतीक्षालय के बोर्ड के ऊपर एक नियोन लाइट जल रही थी और धुंधलके में बोर्ड पर लिखे ‘यात्री प्रतिक्षालय’ में से ‘तिक्षा’ पर इतनी तेज़ रोशनी चमक रही थी कि दोनों अक्षर मिट गए से लगते थे। उसे पढ़ रेखा एक पल मुस्कुराई, मगर अगले ही पल चारों ओर का सन्नाटा देखकर संजीदा हो गई।
रेखा अभी-अभी बस से उतरी थी। वह अपने कस्बे से इस बड़े स्टैंड पर लगभग खाली-खाली बस में आई थी ताकि रात को दो बजे अपनी अगली मंज़िल के लिए बस पकड़ सके और यहाँ आकर तो सबकुछ खाली-खाली सा था। उसे लगा था इतने बड़े शहर के बस अड्डे पर सारी रात चहल-पहल होगी, खासकर तब, जब रात-बिरात भी यहाँ से बसें चलती हों। बसों के रूकने के लिए एक लाइन से बने 7-8 स्थानों को पार करती हुए वह बस अड्डे के एक ओर बने प्रतीक्षालय पर पहुँची।
प्रतीक्षालय के बाहर एक टेबल-कुर्सी लगी थी। टेबल पर एक रजिस्टर खुला पड़ा था मगर कुर्सी से केयरटेकर नदारद था। रेखा ने रजिस्टर के बीचों-बीच पड़े पेन को उठाया और अपना नाम पता इत्यादि लिखकर अंदर चली गई।
अंदर कोई नहीं था। दीवार के चारों ओर लगी लोहे की कुर्सियों पर केवल सन्नाटा पसरा था। उसने एक कोनेवाली कुर्सी चुनली और कुर्सी को हाथ लगाते ही बदन ठंड से सिहर उठा। शॉल को अपने चारों ओर कुछ इस तरह समेटते हुए वह कुर्सी पर पाँव सिकोड़कर कर बैठ गई कि लगभग पूरी की पूरी शॉल के भीतर समा जाए।
कुछ देर वह खाली हॉल को ऊपर से नीचे और दाएं से बाएं देखती रही। ठंडी कुर्सियों को देखकर उसे और ठंड लगने लगी। हॉल को देखकर मुस्कुरा दी कि जिस एन.जी.ओ के लिए वह काम करती है वहाँ के अनाथ बच्चों को अगर यह हॉल मिल जाए तो अच्छा फुटबाल का मैच हो जाए।
हॉल देखते-देखते ऊब गई तो दरवाज़े के बाहर देखने लगी। दूर सूखे-घासों के पार उसे यूकेलेप्ट्स के पेड दिखाई दे रहे थे और पास देखने पर प्रतीक्षालय के बाहर लगे नियोन लाइट से इकठ्ठे हुए कीट-पतंगे। उसने दूर ही देखना चाहा और यूकोलिप्ट्स के पेड़ देखते-देखते सोचने लगी कि जहाँ वह जा रही है वहाँ के बच्चे कैसे होंगे? उसके एन.जी.ओ ने उसे दूर-दराज के इलाकों में शिक्षा अभियान चलाने के लिए भेज तो दिया है पर क्या वह कर पाएगी।
लगातार यूकेलेप्ट्स के पेडों को देखते-देखते वह चौंक गई। उसे लगा जैसे दो यूकेलेप्ट्स के पेड़ों ने आपस में जगह बदल ली। यह कैसे हो सकता है? उसने शॉल से बाहर हाथ निकाल के आँखें मलीं। कुछ तो हुआ ज़रूर मगर जो देखा वो असंभव था।
उसने अपने जैकेट की जेब से मोबाइल निकाल कर टाइम देखा। और कुछ देख भी नहीं सकती थी। नेटवर्क और डेटा दोनों नदारद थे। जाने शहरों में लोग कैसे रहते होंगे बिना नेटवर्क के जब बस अड्डे जैसी महत्वपूर्ण जगह पर नेटवर्क का नामोनिशान नहीं है। कमबख्त नेटवर्क भी गहरी नींद में सो रहा था।
रात के एक बज रहे हैं। अभी बस आने में डेढ़ घंटा बाकी है।
वैसे तो रेखा अकेले रहना ज़्यादा पसंद करती है लेकिन यूकेलिप्ट्स के डरावने पेडों के देखकर वह मन ही मन प्रार्थना कर रही थी कि कोई तो आए इस भूतखाने में ताकि बात करने के लिए न सही, कम से कम इंसान की मौजूदगी से ही वह आश्वस्त हो सके और पेड़ बदल जाने जैसे भयावह नज़ारों की कल्पना न करे। कल्पना? हाँ कल्पना ही होगी। सच में थोड़े न ऐसा हो सकता है।
जैसे-जैसे समय बीत रहा था रेखा अपने परिवेश के प्रति और अधिक संवेदनशील होती जा रही थी। उसके कान अब ध्यान लगाकर बाहर सांय-सांय करती हवा को सुन रहे थे। कुछ क्षणों के लिए उसे लगा जैसे हवा की आवाज़ नहीं है कोई औरत विलाप कर रही है। कभी आवाज़ हवा की सांय-सांय में बदल जाती तो कभी ध्यान से सुनने पर किसी औरत के सिसकियां लेते विलाप में।
रेखा अब बुरी तरह डर गई थी। उसने अपनेआप को शॉल से बुरी तरह कस लिया। बार-बार के विलाप से उसके अंदर कंपकंपी सी उठने लगी थी। वह मन ही मन प्रार्थना करने लगी कि किसी को तो भेजो भगवान।
भगवान इतना निष्ठुर नहीं था कि ठिठुरती रेखा की न सुनता। भयानक सन्नाटे को चीरती सांय-सांय के दस मिनट बाद हॉल में सात-आठ बुर्के वालियों ने प्रवेश किया जिनके साथ तीन-चार गोदीनुमा बच्चे थे। रेखा ने राहत की सांस ली।
एक ही समूह ही होते हुए भी उन औरतों ने आमने-सामने की दिवारों से लगी सीटों में अपने को बाँट लिया और बच्चों को फर्श पर खेलने के लिए छोड़ दिया। कमरे के एक ओर से सवाल-जवाब की बौछारें दूसरी ओर की कुर्सी पर पहुँचने लगी और दूसरी ओर से भी हैदराबादी हिंदी में लज़्ज़त भरी चुहलबाज़ियां होने लगीं।
रेखा मुस्कुराने लगी थी। उसे उनसे घुलने-मिलने में कोई दिलचस्पी नहीं थी। बस खुशी थी कि रात के डेढ बजे वह अकेले नहीं है बल्कि इतनी सारी औरतों से घिरी है। उसने अब नज़र उठाकर ध्यान से उन औरतों को देखा तो सोच में पड़ गई। इतनी सारी औरतें, एक ही घर-परिवार की लग रही हैं, फिर भी अपना चेहरा ढके-ढके ही बात कर रही हैं। इस हॉल में कोई मर्द भी नहीं है जिससे वे मुँह छिपा रही हों।
फिर उसने सोचा क्या उससे छुपा रही हैं? एक वही तो बाहरवाली है। खैर, जो भी हो। या हो सकता है ठंड से बचने के लिए। मगर ठंड भी इतनी नहीं है। यह तो गुलाबी ठंड है। उसने सोचते-सोचते अपना शॉल ढीला कर दिया और कंधे पर से गिर जाने दिया और खुद आल्थी-पाल्थी मारकर बैठी रही। गोद में रखे मोबाइल पर ध्यान गया तो जलाकर टाइम देख लिया।
पौने दो। बस पौन घंटा और।
इन औरतों की चुहलबाज़ियों से मन हटकर उसके गंतव्य की ओर जा पहुँचा। क्या वहाँ के लोग भी रूढ़ीवादी होंगे? क्या वे अपने बच्चों, खासकर लड़कियों को स्कूल भेजने के लिए राज़ी होंगे? क्या होगा, क्या नहीं? इसी उधेड़-बुन में रेखा कब-तक खोई रही उसे ध्यान नहीं।
अचानक उसकी तंद्रा टूटी तो उसने देखा कि सभी औरतें एक-दम शांत बुत की तरह बैठी हैं। सबकी सब एक ही मुद्रा में। सबने कुर्सी पर बैठे-बैठे अपने दोनों घुटनों पर दोनों हाथ रख रखे हैं। रेखा फिर स्तब्ध थी। उसने बच्चों को देखा तो वे भी शांत-दत्ताचित्त मूर्तियों के समान यहाँ-वहाँ बैठे थे।
रेखा कभी अपनी ओर की दीवार की औरतों को देखती तो कभी सामने वाली दीवार से लगी औरतों को। उसकी समझ नहीं आ रहा कि आचानक सब-कुछ इतना स्थिर, चित्र जैसा कैसे हो सकता है।
फिर वही हवा सांय-सांय कर रही थी। उसे फिर हवा में स्त्री के विलाप का स्वर सुनाई देने लगा। इस बार विलाप थमने की बजाए तेज़ होने लगा और धीरे-धीरे एक स्त्री की बजाय और स्त्रियों का विलाप उसमें जुड़ने लगा। उसने ध्यान से देखा तो पता लगा कि यह विलाप हॉल में बैठी बुर्के वाली औरतों से आ रहा था। वे सब की सब मूर्तिमय मुद्रा में सिसकियां ले रही थीं।
रेखा एकदम जड़ हो गई। शायद इसी को पैरों तले की ज़मीन खिसकना कहते हैं।
धीरे-धीरे उनका विलाप सिसकियों से नाक सुड़कने में बदल गया। वे सभी सिसक-सिसक कर नाक सुडक रहीं थीं। बच्चे जस के तस फर्श पर चिपके हुए थे। रेखा ने डरते-डरते पैर ज़मीन पर रखा कि वह धीरे से वहाँ से भाग जाए।
मगर जैसे ही उसने पाँव ज़मीन पर रखे औरतों ने खुले-आम रोना शुरू कर दिया। रेखा ने डर के मारे कुर्सी के दोनों हाथ पकड़ लिए और एक कंपकंपाती ठंडी लहर को अपने भीतर उतर जाने दिया। वह खुद कुछ देर के लिए बुत हो गई।
कुछ समय बाद जब उसने साहस बटोरकर खड़े होने का प्रयास किया तो औरतें सभ्य तरीक से रोना छोड़कर बुका फाड़-फाड़कर और छाती पीट-पीटकर रोने लगी। रेखा के पैर वहीं जम गए। ये क्या हो रहा है?
उसने वहीं खड़े-खड़े देखा कि वे छाती पीटती और मर्मांतक रूदन करती औरतें अपनी कुर्सी से आधा फीट ऊपर हवा में हैं। रेखा हैरान थी। वह वहाँ से जान लगाकर भाग जाना चाहती थी मगर उसके पैर बर्फ हो चुके थे, एकदम निष्प्राण से। वह वहाँ जड़ होकर केवल यह सारा तमाशा घटित होते हुए देख सकती थी, न भाग सकती थी न अपने अवरुद्ध कंठ से किसी को मदद के लिए पुकार पा रही थी।
उसने देखा औरतें और आधा फीट ऊपर उठ गईं और उनका रूदन तेज़ से तेज़ होता चला गया। अपनी बेबसी पर रेखा के आँखों से आँसूँ बहने लगे। वह भी चाहती थी कि उन औरतों की तरह अपनी दहाड़े मार-मारकर रोए। मगर उसके सारे शरीर ने डर के मार हिलना बंद कर दिया था। केवल उसकी आँखों से गिरते आँसू ही चलायमान स्थिति में थे। उसकी पलकें तक झपक नहीं रही थी।
औरतें कुछ और ऊपर उठीं। फिर कुछ और ऊपर्। जैसे-जैसे हवा में बैठे-बैठे ही निराधार वे ऊपर उठ रही थीं, वैसे-वैसे ही उनका प्रलाप तीखा और तेज़ होता जा रहा था। अब वे लगभग छत के करीब पहुँच चुकी थीं। रेखा को अपनी गर्दन और पुतलियां ऊपर उठानी पड़ी। उनकी चीखों से कान फटने जैसे होने लगे।
वे औरतें हवा में ही तेज़-तेज़ घूमने लगीं। रेखा को यह सब देखकर चक्कर सा आने लगा। उसने दम लगाके दरवाज़े की ओर भागने की कोशिश की मगर बीच हॉल में ही रूक गई। दरबाज़े के बाहर, दूर खड़े वे सारे यूकलिप्टस के पेड़ बहुत तेज़ी से अपनी जगहें एक-दूसरे के साथ बदल रहे थे। उतनी ही तेज़ी से जितनी तेज़ी से ऊपर औरतें घूम रही थीं। जिनका बुरका हवा में फूल गया था, किसी सूफी के चक्कर लेते समय फूलने जैसा।
इतने में रेखा के हाथ का फोन घनघना उठा। उसने फोन को देखा तो उसकी स्क्रीन पर तेज़ी से वॉलपेपर बदल रहे थे। इतने तेज़ी से कि इससे पहले वह चित्रों को समझ पाती, वे बदल जाती। रेखा का सिर अब घूम गया। पूरा हॉल आँखों के आगे नाच गया और वह धड़ाम से फर्श पर गिर गई।
सुबह की हल्की धूप उसकी आँखों पर गिर रही थी और एक आदमी उसके कंधे को हिला-हिलाकर उसे उठाने की कोशिश कर रहा था। रेखा ने आँखें खोल दी। दिन के उजाले में कितना सुकून था वह बता नहीं सकती थी। उसे यकीन नहीं हो रहा था कि यह हॉल वही रात का भूतखाना है।
उसने उठकर बैठने की कोशिश की तो कुछ और आदमी और औरत करीब आए और एक औरत ने उसे सहारा दिया। रेखा पहले तो उसे देख्कर डर गई क्योंकि उसने बुर्का पहना था। मगर चेहरा खुला था और चेहरे पर ममताभरी मुस्कान थी।
वह उठी और उसे चेयर पर बैठाया गया साथ ही खाकी कपड़े पहने एक आदमी ने बिस्कुट और पानी भी दिया। उसे एहसास हुआ कि उसका गला एकदम सूख चुका है और कल दोपहर के बाद से उसने कुछ खाया भी नहीं था। उस खाकी वर्दी वाले ड्राइवर या कंडक्टर ने उससे पूछा –“कहाँ से आई है आप और कहाँ जाना है आपको?”
रेखा ने पानी घूँट लेते हुए बताया कि वह कहाँ जा रही है,यह सुनकर वह आदमी हंस पड़ा।
“गलत बस अड्डे पर आ गईं आप तो। आपको तो रात ढाई बजे वाली बस अगले बस अड्डे से मिलनी थी। वैसे थोड़ी देर में एक बस उस बस अड्डे के लिए निकल रही है। कहें तो उसमें आपको बैठा देते हैं।”
पर फिर ढाई बजे की बस पकड़ने के नाम से ही रेखा सिहर उठी और पूछ बैठी “मेरे घर के लिए बस कितने बजे है?”
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