टूटते विश्वास को जोड़ने की बात
बीते दिनों एक घटना ने मुझे विचलित कर दिया। द्वार पर तीन भगवा वस्त्रधारी आकर खड़े हुए और उन्होंने कॉल बेल दबायी। मैंने प्रथम मंजिल की गैलरी से झांका तो तीन भगवा वस्त्रधारी लोग खडे़ हुए थे। कुछ देर मैं विचारमग्न होकर रह गया। पहले का समय अलग था जब घर पर आने वाले हरेक आगन्तुक का ससम्मान आदर के साथ सत्कार करने की परम्परा रही और यह परम्परा घर के बुजुर्गों के कारण बन चुकी थी। हमें कबीरदास जी के शब्दों में इस बात की घुट्टी पिला दी गई थी कि-
“सांई इतना दीजिए,जामे कुटुम समाय।
मैं भी भूखा ना रहूँ,साधु न भूखा जाए।।”
कितनी गहरी बात है। इंसान को अपनी जीवन की गाड़ी चलाने के लिए अथाह दौलत की आवश्यकता नहीं है बल्कि अपनी सीमित आवश्यकता के चलते वह अपना,अपने परिवार का और आने वाले अतिथि का पेट भर सकता है।और यही संस्कार रहे कि जो भी मिला,उसे संग्रह वृत्ति में न रखकर घर आये साधु-सन्त,फकीर में भी बांटा। कभी किसी को खाली हाथ नहीं जाने दिया। लेकिन उस दिन मैंने आगन्तुकों को साधु-सन्त ,बाबा न कहते हुए सिर्फ भगवा वस्त्रधारी ही कहा, शायद बाबाओं पर से टूटते विश्वास का ही नतीजा था यह!
खैर, इस घटनाक्रम का सार यही है कि बाबाओं पर से मेरा विश्वास पूरी तरह से समाप्त हो गया था।अतः मैंने उन साधु-सन्तों को न तो घर में प्रवेश ही लेने दिया और न ही कोई दान-दक्षिणा दी। तथापि मन में बार-बार यही विचार फटकता रहा कि क्या मैंने अपनी पारिवारिक विरासत को तोड़ा है? मुझे अपने बुजुर्गों से जो संस्कार मिले, क्या मैं अब उन संस्कारों से विमूख हो चला हूँ! क्यों मैंने बच्चों से झूठ कहलवाया कि घर पर कोई नहीं है।
किन्तु मुझे लगता है कि शायद मैंने गलत नहीं किया। हाल ही के वर्षों में तथाकथित बाबाओं के जो कारनामे सामने आये हैं उनसे तो यही लगता है कि हमें ऐसे साधु-सन्तों,फकीरों से दूरी बना लेना चाहिए।यहाँ प्रश्न यह भी है कि क्या सभी साधु-सन्त ,फकीर,मुल्ला-मौलवी,फादर-प्रिस्ट ऐसे ही हैं तो जवाब यही होगा कि नहीं ऐसा नहीं है।कुछ बाबाओं,फकीरों,भगवा वस्त्रधारियों या फिर मुल्ला-मौलवियों या फिर चर्च के फादर द्वारा किए गए गलत आचरण या कहें दुराचरण और व्याभिचार के कारण हम सभी धर्मगुरूओं को कटघरे में खड़ा नहीं कर सकते तथापि हमें अच्छे और बुरे की पहचान भी करना होगी तथा अच्छे और वास्तविक धर्मगुरुओं को भी उसी सीमा तक मान-सम्मान,प्रतिष्ठा देनी होगी जिस सीमा तक उनके कदम जमीन पर ठहर सकें।कहा भी गया है कि पानी पीजै छान के,गुरु कीजै जान के लेकिन हम बिना सोच-विचार किये धर्मगुरुओं के छलावे में आ जाते हैं।पहले के जमाने में व्यक्ति हर किसी को गुरु नहीं बना लेता था, बड़े ही सोच-विचार के बाद किसी को गुरु स्वीकार किया जाता था लेकिन आजकल स्थिति बदल गई है ;बिना सोचे विचारे चमत्कारों के प्रभाव में आकर लोग उनके चेले बन जाते हैं और शोषण के शिकार हो जाते हैं।अपना और परिवार का शोषण होने के बाद भी उनकी आँखों पर पट्टी बंधी रहती है और यह अंधभक्ति उन्हें अंधकार के गर्त में ले जाती है।
धर्मगुरुओं को बिगाड़ने का काम भी आम जन ही करता है क्योंकि बिना सोचे समझे अनुसरण कर उनकी झोली भरते रहते हैं और उनको अपना साम्राज्य स्थापित करने में मदद करते हैं।धर्मगुरुओं के राह भटकने का एक कारण यह भी है कि वर्तमान में इंसान धार्मिक प्रवृत्ति का ना होकर धर्मभीरु हो गया है।आधुनिकता ने उसे डरपोक बना दिया है;उसके भययुक्त होने के कारण ही उसका धर्मगुरु शोषण करते हैं।यदि व्यक्ति आध्यात्म की गहराई को समझने लग जाए तो भौतिकवादी जगत की बुराईयों से स्वयं ही दूर हो जाएगा।उसे किसी साधु-सन्त ,बाबा-फकीर,मुल्ला-मौलवी,फादर-प्रिस्ट की जरुरत नही पड़ेगी।धर्मगुरुओं के जनसाधारण पर प्रभाव को देखते हुए ही देश के सभी राजनीतिक दल धर्मगुरुओं का अपने हित में उपयोग करने लगे हैं;उन्हें हर तरह की जायज-नाजायज सुविधाऐं मुहैया कराने लगे हैं, वरना क्या कारण है कि जो धर्मगुरु जनसामान्य को माया-मोह,काम-क्रोध से दूर रहने के उपदेश देते हैं, वही अथाह सम्पत्ति एकत्र कर अपना साम्राज्य स्थापित कर लेते हैं।उन्हें अपने मठ,डेरे,धर्म स्थल महलों की तरह चाहिए,सेवादार के साथ सेवादारनियाँ चाहिए;अपनी जान माल की हिफाजत के लिए अंगरक्षक और हथियार चाहिए;वातानुकूलित और आरामदायक वाहन,निवास स्थान,पूजा स्थल चाहिए;बुलेट प्रुफ कारें और प्रवचन हाल चाहिए।आखिर ये धर्मगुरु इतने भौतिकवादी कैसे हो गए!इनका आध्यात्म से कहाँ सम्बन्ध रह गया!ये स्वयं ही माया-मोह ,काम-क्रोध और लोभ में लिप्त हैं तो आम आदमी को क्या ज्ञान देंगे! कैसे भौतिक जगत की बुराईयों से उसे परिचित करायेंगे!
अभी तो धर्मगुरुओं के सही राह पर आने की जरुरत है।उन्हें स्वयं ही आत्मावलोकन करना होगा।कुछ बाबाओं,साधु-सन्त,मुल्ला-मौलवियोंपर वक्रदृष्टि पड़ जाने मात्र से ही तो इन धर्मगुरुओं का भौतिक साम्राज्य समाप्त नहीं हो जाएगा।क्या इन धर्मगुरुओं की महत्ता तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य की राजसत्ता और चर्च की सत्ता के समान एक लोकतांत्रिक देश में स्वीकारी जाना चाहिए! यदि धर्मगुरुओं की चाहत भी सत्ता प्राप्ति की है तो उन्हें आध्यात्म का लबादा उतार कर खुले रुप में राजनीति के अखाड़े में उतर जाना चाहिए ।क्यों वे धर्म की ध्वजा थामकर अनैतिक कार्यों में लिप्त हो जाते हैं।धर्म को व्यापार-व्यवसाय नहीं बनाया जाना चाहिए; धर्म स्वार्थ नहीं सिखाता अपितु परमार्थ की बात करता है।धर्मगुरु भौतिक जगत से दूर जंगलों और कंदराओं को ज्ञान प्राप्ति और बांटने का स्थान बनाते हैं; उनके लिए कोई आम और खास नहीं होता।यदि वे इनमें भेद करते हैं तो उनकी साधुता पर ही प्रश्नचिन्ह लग जाता है।धर्मगुरुओं को समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए, राजसत्ता को नैतिक मूल्यों, सिद्धान्तों तथा आध्यात्मिक विषयो का दिशादर्शन करना चाहिए,न कि वे स्वयं वैभवपूर्ण जीवन जीते हुए दिग्भ्रमित होकर राजसत्ता के हाथों के खिलौने बन जाएं।
अब इस बात पर गंभीरतापूर्वक विचार करने का समय आ गया है कि समस्त धर्माचार्यों को चाहे वे किसी भी धर्म,सम्प्रदाय या मत की ध्वजा थामे हुए हों,उन्हें जनता के कल्याण की दिशा में ही सोचना होगा।यदि वे स्वयं ही भटक गए तो आम जन का धर्म पर से ही विश्वास उठ जाएगा।व्यक्ति की धर्म पर आस्था और विश्वास नहीं डिगे,वह धर्मपूर्ण तथा नैतिक आचरण करें,इसका दायित्व धर्मगुरुओं का ही है, वरना समाज से सदाचार की अपेक्षा नहीं की जा सकेगी तथा चहुँओर अराजकतापूर्ण स्थिति निर्मित हो जाएगी,जैसा कि वर्तमान दौर में हम देख ही रहे हैं।धर्मगुरुओं को इस दिशा में सोचना होगा।ढ़ोंगी और पाखण्डी धर्मगुरुओं की पहचान कर उन्हें बेनकाब करने का कार्य भी इन्हें ही करना होगा।
— डॉ प्रदीप उपाध्याय