कविता

स्वयं का होना

स्वयं का होना
पर्याप्त नहीं है
क्यों हैं किसके लिए हैं
इसमें नैराश्य का भाव है
अकेलेपन का अहसास है,
अपने उपयोगी होने पर सवाल है
अपने अस्तित्व पर प्रश्नचिन्ह है
स्वयं का कुछ होना
सकून देता है
स्वयं को भी
अपनो को भी
और दूसरों को भी
लेकिन यदि स्वयं कुछ नहीं हैं
तब किसी के लिए आप कुछ नहीं हैं
लेकिन कुछ होने के लिए
बहुत कुछ खोना पड़ता है
दूसरों की अपेक्षाओं पर
खरा उतरना पड़ता है
अपनों के लिए भी
स्वयं का कुछ होना
जरुरी है वरना
चाहे अपनों के या परायों के लिए
स्वयं का होना कोई मायने नहीं रखता
जब तक खुद का कुछ होना
साबित नहीं हो जाता।

*डॉ. प्रदीप उपाध्याय

जन्म दिनांक-21:07:1957 जन्म स्थान-झाबुआ,म.प्र. संप्रति-म.प्र.वित्त सेवा में अतिरिक्त संचालक तथा उपसचिव,वित्त विभाग,म.प्र.शासन में रहकर विगत वर्ष स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ग्रहण की। वर्ष 1975 से सतत रूप से विविध विधाओं में लेखन। वर्तमान में मुख्य रुप से व्यंग्य विधा तथा सामाजिक, राजनीतिक विषयों पर लेखन कार्य। देश के प्रमुख समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सतत रूप से प्रकाशन। वर्ष 2009 में एक व्यंग्य संकलन ”मौसमी भावनाऐं” प्रकाशित तथा दूसरा प्रकाशनाधीन।वर्ष 2011-2012 में कला मन्दिर, भोपाल द्वारा गद्य लेखन के क्षेत्र में पवैया सम्मान से सम्मानित। पता- 16, अम्बिका भवन, बाबुजी की कोठी, उपाध्याय नगर, मेंढ़की रोड़, देवास,म.प्र. मो 9425030009