गज़ल
कभी लड़खड़ाते, कभी गिरते-पड़ते,
कहां आ गए हम यूँ ही चलते-चलते,
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चलो लौट चलते हैं फिर बचपने में,
कहा ख्वाहिशों ने मचलते-मचलते,
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वो सपने जो थे रात भर साथ मेरे,
कहीं खो गए दिन निकलते-निकलते,
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तेरी आँखों में जाने कैसा नशा था,
बहक ही गए हम संभलते-संभलते,
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जो जलता है वो डूब जाता है आखिर,
कहा मुझसे सूरज ने ये ढलते-ढलते,
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ना छोड़ा मयार आखिरी साँस तक भी,
शमा जलती ही गई पिघलते-पिघलते,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।