कहानी

दो मुँहवाला साँप

धीरे-धीरे शाम पसर रही थी और ठंड ने फैलना शुरु कर दिया था। सूरज ने अपना सुनहरा आँचल वापस खींच लिया था मगर रात ने अभी भी अपनी काली चादर नहीं ओढ़ाई थी।

सिंक में अपने हाथ धोते हुए उर्मिला ने मुँह उठाकर रसोई की बंद खिड़की देखी। जाली के उस पार झाड़ी में कुछ हिल रहा था। उर्मिला ने नज़र गड़ाकर देखा। हरे रंग का एक चिकना दो मुँहा साँप रेंग रहा था।

उर्मिला के माथे पर लकीरें जमने लगीं । साब जी कितना परेशान है। आँख से पता चलता है कि रात को सोया नई है। बीबी जी का भी वो ही हालत है। काश मेरे से कुछ हो सकता।

हाथ रगड़कर साफ़ करती हुई उर्मिला इन्हीं खयालों में खोई थी कि दमयंती की आवाज़ ने उसकी तंद्रा तोड़ी।

“उर्मि! ओ उर्मि!”

उर्मिला सिंक में हाथ धोकर आँचल से पोंछती हुई बैठक में पहुँची। बैठक में माहौल बहुत गमगीन भारी था। एकनाथ जी कमरे में बिछे कालीन को पार कर कमरे एक कोने से दूसरे कोने में अपने भारी कदमों से टहल रहे थे। दमयंती माथा हाथ पर टिकाए और हाथ की कुहनी सोफे पर टिकाए एक ओर लुढ़की पड़ी थी। उसकी मुद्रा से ही लगता था कि सिर में भयंकर पी‌ड़ा है जो सुबह से ही उसके सिर में अपनी ड्यूटी बजा रहा है।

वहीं दूसरी ओर सोफे के एक कोने में ध्रुव अपने पैर मोड़कर बैठा शोरूम से अभी-अभी लाए नई कारों के कोटेशन पर झुका पड़ा था।

“पापा! इसमें से तो कोई भी कार अपने बजट में नहीं बैठती।”

सबकी चिंतातुर आँखों में प्रश्न पूछते ध्रुव की तस्वीर तैरने लगी। उर्मिला भूल गई कि उसे दयमंती ने बुलाया था और दमयंती भूल गई कि उसने क्यों उसे आवाज़ दी थी। और एकनाथ ….एकनाथ के चहलकदमी करते भारी कदम कथक की मुद्रा में ठिठक गए।

उनके निराश आँखों ने सबकुछ कह दिया था। मगर जीवनसंगिनी के होंठ उन्हें दुहराए बिना नहीं रह सकते थे। अत: दमयंती के होंठ, जिन्हें इससे पहले अदरक वाली चाय की तलब थी, अब थरथरा उठे और शब्द होंठों की सीमा लाँघ बैठक में जा पहुँचे।

“उस दिन तो कुछ नहीं कहा उन्होंने। उनके लिए कुछ भी माँगना घृणित लग रहा है था उस दिन। बड़ी शान से कह रहे थे कि हमें तो बस ऋतु चाहिए। हम लेन-देन में विश्वास नहीं रखते। और अब जब शादी को केवल बीस दिन बचे हैं तो….”

उर्मिला ने दमयंती की रातभर की थकी आँखें देखीं। उसे भी याद आ गया वो दिन जिस दिन लड़के वाले अपनी ऋतु बिटीया को देखने को आए। वो दिन मैं घर का कोना-कोना रगड़कर चमकाई, ऐसे-जैसे घर सफ़ा नहीं देखेंगे तो रिश्ता भी नहीं होना। लड़का कित्ता सुंदर था न। बात भी बोत अच्छा-अच्छा बोलता था। माई-बाप भी ठीक ही लग रहा था। फिर अबी कैसा क्या हो गया। मैं कित्ता खुश थी कि जीजी को कित्ता अच्छा लोग मिल रहे। चार-चार मिठाई और चार-चार नमकीन बनाई मैं। वो लड़का तो इत्ता अच्छा था कि चाय भी नई पिया।

उर्मिला को अचानक याद आया कि दमयंती ने उसे किसी काम से बुलाया था। हो न हो उनको चाय चाहिए होगी। उसने दमयंती की ओर देखा। मगर दमयंती तो दयनीय आँखों से एकनाथ की ओर देख रही थी।

“ऐ जी! हमारी ऋतु को जो देखने आया था वो तो बहुत सज्जन परिवार था। ये लोग कौन हैं? कुछ नहीं लेंगे; कुछ नहीं देंगे। सिर्फ ऋतु चाहिए और कुछ नहीं। फ्लाना-ढिमकाना।”

“लड़के के मामा ने फोन करके कहा था कि हमारी इज़्ज़त का भी थोड़ा ख्याल रखिएगा। बिना कार के आजकल कोई शादी होती है भला?”

ध्रुव, जिसकी आज तक स्पोर्ट्स बाइक की साध पूरी नहीं हुई थी, आज भभक उठा।

“ये मामाजी कहाँ से टपक पड़े? इतनी सारी रस्में हो गईं, कहीं नहीं दिखाई दिए। अब कहाँ से अवतरित हुए हैं?”

जैसे एक नगीं तार को छूने से दूसरी नगीं तार में भी बिजली प्रवाहमान हो उठती है, बेटे के आलाप के बाद पिता ने भी अपना आलाप छेड़ दिया।

“लड़का-लड़की दोनों कमाते हैं तो खुद सबकुछ क्यों नहीं खरीद लेते। हम बूढ़े माँ-बाप की गर्दन क्यों रेतने में लगे हैं। ऋतु की भी तो इतने साल की सर्विस हो गई और राजेश भी कई साल से काम कर रहा है। इनको कार चाहिए तो खरीदें कार।”

यज्ञ-हवन में जैसे अंतिम आहुति डालते समय हाथ उठाया जाता है वैसे ही हवा में हाथ उठाकर एकनाथ जी सोफे में धँस गए। जैसे उन्होंने शादी के इस खेल से हाथ खींच लिया। निर्वाण प्राप्त एकनाथ जी को देखकर सब हतप्रभ थे क्योंकि वे सब तो अभी भी इसी माया जाल में फँसे सांसारिक लड़कीवाले ही थे। शादी तो होनी थी चाहें एकनाथ जी जो साधुवाद सुनाएं।

उर्मिला को लगा कि अभी यह चर्चा लंबी चलेगी क्योंकि कोई हल निकालने की बजाय एकनाथ जी विषय से भटक रहे हैं। इसलिए उसने इस तारतम्यता को तोड़ते हुए कहा।

“बीबी जी काए को बुलाया था?”

“सर दु:खना बंद नहीं हुआ। एक चाय, अदरक डालके।”

उर्मिला पीछे मुड़ी ही थी कि उसके मुँह मोड़ने की अर्जी को अस्वीकार करते हुए दमयंती ने फिर पुकारा।

“और सुन…”

उर्मिला मुड़ी।

“अदरक थोड़ी ज़्यादा डालना। गले में लगने जितनी।”

उर्मिला लौटने को हुई कि फिर किसी को उसका मुँह मोड़ना पसंद न आया।

“मौसी”

इस बार ध्रुव ने आवाज़ लगाई। आखिर उसे भी अर्जियाँ अस्वीकार करने का अधिकार है।

“मेरे लिए भी एक”

बार-बार की टोक से खुदी तंग आकर उर्मिला वहीं खड़ी हो गई और उसने तीसरी अर्जी अस्वीकार होने से पहले खुद ही उसी स्वीकार करवा डाला।

“साब! आपको भी?”

“नहीं, मुझे चाहिए तो नहीं थी। मगर अदरक वाली बना रही हो तो एक-आधी कप मुझे भी दे ही दो।”

उर्मिला किचन में लौट आई। यहाँ गैस पर पानी उबल रहा था और वहाँ बैठक में सब के सब। उर्मिला ने खौलती चायपत्ती में दूध डाला तो पतीले में सब शांत हो गया। बाहर बैठक में अब सब इस चर्चा में लगे थे कि और पैसे कहाँ से इकठ्ठे किए जाएं। रिश्तेदार तो इसी दिन हाथ झाड़कर खड़े होने के लिए ही पैदा होते हैं। सबके घर में इसी समय कड़की चलती है। वरना बाक़ी समय तो ठाठ दिखाने के लिए कुछ भी कर जाएं।

जीने में स्कूटी खड़ा करने की आवाज़ आई। उर्मिला ने चाय के पतीले में लगभग एक कप दूध और बढ़ा दिया। ऋतु आ गई थी। ऋतु बैठक से होते हुए सब्ज़ियों का थैला लिए किचन में घुस आई थी। बैठक में चर्चा का जो तार वो छोड़ आई थी उसका कंपन वह किचन तक ले आई थी क्योंकि बातचीत का कुछ अंश वह किचन से ही चिल्ला-चिल्लाकर पूरा कर रही थी। उसने थैले को फ्रिज के किराने टिकाते हुए फ्रिज खोला और फ्रिज में सिर घुसाकर किसी सवाल का जवाब देती हुई सी बोली।

“आप टेशन मत लो…।”

यह बात तो फ्रिज को छोड़कर किसी को सुनाई नहीं दी। चाय में घिसी हुई अदरक डालती पास खड़ी उर्मिला तक को नहीं। इस अनहद के बाद कही गई बातें सबने सुनी। बैठक में भी सबने सुनी।

“……मैंने अपने ऑफिस में बात की थी। पी.एफ. तोड़ सकती हूँ। और फिर कुछ एफ.डी भी हैं।”

अदरक ने खौलना शुरू कर दिया था और उसकी खूश्बू की लपटें बैठक तक पहुँच रही थी। मगर सबसे पहले तो इस लपट ने ऋतु की नाक में सेंध मारी।

“…मौसी मेरे लिए भी एक कप….”

“हाँ, हाँ, मेरे को पता था…इस रके पहले ही मैं चार कप बना रही है।”

ऋतु जैसे ही रसोई के दरवाज़े के ओर मुड़ी किसी अप्रत्याशित चुनावी नतीज़ों की तरह दमयंती दरवाज़े पर खड़ी थी। अप्रत्याशित इसलिए कि अपने सिरदर्द के कारण चलना-फिरना तो दूर अपनी कुर्सी से उनके उठने की भी प्रत्याशा नहीं की जा सकती थी।

उर्मिला और ऋतु दमयंती को उसी तरह देख रहे थे जैसे किसी अप्रत्याशित विजयी उम्मीदवार को देखा जाता है। दमयंती काफी तेज़ी से ऋतु की ओर बढ़ी और उसे लगभग फ्रिज के पास घेरते हुए इस लहज़े में बोली जैसे कोई चुपके से ब्लैक टिकट बेच रहा हो।

“तू पागल है क्या! क्यों अपने पैसे लुटा रही है, वो लड़के वालों पर…”

“मगर मम्मा… उनकी डिमांड्स भी तो पूरी करनी होगी न।”

उर्मिला ने चार कपों में चाय उड़ेली और माँ-बेटी के गुरूज्ञान से तटस्थ होकर दो चाय बैठक में देने चली गई। मगर यहाँ दमयंती किसी गुरू द्वारा कान फूँकने के लहज़े में अपने जन्मभर का अनुभव ऋतु के कान में उड़ेल रही थी।

“देख ऋतु जब आड़ा समय आता है तो मुठ्ठी के दो-चार पैसे ही काम आते हैं। तब कोई माँ-बाप-भाई-भौजाई-पति-ससुर-देवर यहाँ तक कि अपनी जाया संतान भी काम नहीं आती। और फिर जिनके लिए तू पैसे फेंक रही है वो तो लेने के लिए ही उतावले हैं, भला तूझे ज़रूरत पड़ने पड़ कहाँ से देंगे। अपनी देखभाल के लिए कुछ बचाकर रख।”

“मगर मम्मा…फिर बिना खर्चे के शादी कैसे होगी?”

उर्मिला ने बैठक में कदम रखा तो एक नज़र पूरी बैठक में ऊपर से नीचे घूम गई। उसे इस घर में रखा अपना पहला कदम याद आ गया। पहले माँ काम करती थी और माँ ही यह घर दिखाने लाई थी काम करने के लिए। दमयंती ने उसकी आँखों के सामने ही इस घर में कदम रखा था। और अब…ऋतु का इस घर से जाने का समय आ गया।

ऊपर लगी फाल्स सीलिंग तब न हुआ करती थी। तब छत दूसरी ही थी। कमरे की चीज़ें भी तो कितनी बदल गई हैं। घर कितना बदल गया है। और लोग?

उसने चाय टेबल पर रखी और किचन में वापस आ गई। स्लैब पर रखी माँ-बेटी की चाय वैसी ही रखी भाप छोड़ रही थी। उसने उन्हें सॉसर से ढक दिया।

“तू इस शादी-ब्याह की रीत को नहीं समझती। लड़के वालों का काम ही है हमसे ज़्यादा से ज़्यादा ऐंठना और हमारा काम है उनके छलावे में न आना और कम से कम में तेरी विदाई करना।”

वहीं चाय का पतीला और चायछन्नी धोती उर्मिला के चेहरे पर एक स्मित दौड़कर खत्म हो गई। कुछ ऐसे ही जैसे घने बादलों के बीच एक बिजली अचानक चमक कर गायब हो जाती है। यह बिजली क्यों चमकी अचानक? क्या सोच रही थी उर्मिला?

उर्मिला सोच नहीं रही थी, सोचने का काम उसने कल रात ही बंद कर दिया। जो थोड़ा बहुत सोच भी रही थी सो अभी-अभी माँ-बेटी के गुरूज्ञान के बाद बंद कर दिया। क्यों? और मुस्कुराई क्यों?

वह मुस्कुराई क्योंकि कल रात का गुरूज्ञान याद आ गया जो उसकी माँ ने ठीक उसी तरह दिया जैसे दमयंती उर्मिला को दे रही है। वह एकनाथ के परिवार की हालात देख इतना तड़प उठी थी कि अपने गहने और जमापूंजी इकठ्ठाकर एकनाथ को देनेवाली थी। जानती है इससे बहुत कुछ तो नहीं, मगर ऋतु बिटीया की शादी में जो भी फर्क पड़ जाए सो….। यही बात ठीक ऋतु के लहज़े में उसने अपनी माँ से कही थी और दमयंती जैसा ही जवाब पाया था। वह मुस्कुरा पड़ी थी तो बस माँओ के अनुभव में इतनी समानता देख, जैसे कोई एक ही साँचे में ढली मूर्तियाँ अलग-अलग घरों में देखकर मुस्कुरा पड़े।

ऋतु और दमयंती किचन से जा चुकी थीं। चायछन्नी को स्टील के तारों से बने मार्जक से रगड़ते हुए उर्मिला ने फिर खिड़की की जाली से बाहर देखा। घना अंधेरा छाया हुआ था। उसके घर लौटने का समय हो चला था। उसने नीचे झाड़ियों में देखा। काली-काली झाड़ियों में कुछ दीख नहीं पड़ रहा था। लेकिन वहाँ कुछ था जिससे पत्तियाँ सरसरा रही थीं।

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उर्मिला ने भीतर कदम रखा तो आँखों ने श्रीगणेश दीवार पर टंगी घड़ी के काँटों पर गई। काँटे सचमुच चुभने लायक थे क्योंकि उसे काम पर आने में बहुत देर हो गई थी। रोज़ तो इस घर में अब तक दो बार चाय हो जाती थी। मैं भी क्या करे? बिन्नी सकूल जाने को ना बोल रही थी। कित्ता समझाया, कित्ता समझाया कि बेटा पढ़ ले। मेरे वास्ते नई पढ़ रही तू। तेरे वास्ते पढ़ ले। तभी समझी, नहीं तो ये छोरी भी तो एकइच है।

गनीमत से बैठक में सब किसी गहन विचार-विमर्श में डूबे थे। उर्मिला ने चुपचाप किचन की राह ली और चाय चढ़ाकर, चावल बीनने लगी। जब इलायची की खूश्बू नाक में गई तो उसने चावल की थाली फ्रिज के ऊपर रख, ट्रे में कप सजाने लगी। आजकल घर में सबको इलायची वाली चाय पसंद आ रही है।

जब चाय छानने लगी तो पाया कि रोज़ की तरह आज फिर उसने तीन की जगह चार कप ट्रे में लगा दिए हैं। ऋतु बिटीया को विदा हुए एक साल होने को आया मगर मैं फिर-फिर वही गलती करती है। उसने खाली कप निकालकर स्लैब पर रखा और इलायची की खूश्बू बिखरते बैठक में पहुँची।

एकनाथ अपना दायाँ पैर बाएँ घुटने पर टिकाए, बाएँ हाथ से उसका तलवा सहलाते हुए सोफे पर बैठे थे और अपनी ही रौ में भुनभुना रहे थे। सभी उनकी भुनभुनाहट तन्मयता से सुन रहे थे। उर्मी भी ट्रे लिए खड़ी की खड़ी रह गई।

“ये क्या बात हुई? भला कार क्यों नहीं देगें? आख़िर हमारी भी कोई इज़्ज़त-मर्यादा है समाज में। खाली हाथ, ठन-ठन गोपाल की तरह केवल दुल्हन लेकर आ जाएंगे क्या?”

बड़ी देर से सामने वाले सोफे पर सिर लटकाए और दोनों हाथों को घुटनों पर टिकाकर बाँधे हुए ध्रुव ने ऐसे चुप्पी तोड़ी जैसे किसी न्यूज़ चैनल पर आमंत्रित दिग्गज से कार्यक्रम का सूत्र संचालक काफी देर से प्रश्न पूछना चाह रहा हो मगर वह अपनी बात कहने में इतना मशगूल हो कि उसे मुख्य मुद्दे से वीतराग हो गया हो।

“और मान लो उन्होंने शादी से ही इंकार कर दिया तो?”

इस सवाल के बाद तो सब एकनाथ को ऐसे देखने लगे जैसे कोई अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की आतंकवाद की समस्या का समूल नाश करने का अचूक उपाय बतानेवाला हो।

“तो क्या? नुक़सान तो उन्हीं का होगा। अब तक जितने कार्यक्रम हुए हैं, खर्चे लड़कीवालों ने उठाए हैं। वे लोग इतने बेवकूफ तो नहीं हैं कि एक कार के खर्चे के लिए बाकी का खर्चा बेकार जाने देंगे।”

दमयंती ने चैन की साँस ली और साँस लेते ही कमरे फैली चाय की खूश्बू उसकी नाक में गई तो उसने उर्मिला की ओर मुखातिब होकर जैसे इस लंबी चली चर्चा को विराम देना चाहा हो।

“हाँ, लाओ-लाओ। इसी की तो दरकार थी।”

मगर ध्रुव कहीं बुझ सा गया जैसे किसी ब्रांडेड शोरूम से बाइक पर कोई छूट नहीं मिल रही है, तो बस इतनी सी बात पर दुकानदार से रूठकर किसी मामूली दुकान की मामूली बाइक खरीदने के लिए माँ-बाप राज़ी कर रहे हों। या शायद उसे लड़की सच में पसंद थी।

उर्मिला खाली ट्रे लिए वापस किचन में आ गई। दाल को धोकर सिंक में उसका पानी गिराते हुए उसकी नज़र खिड़की बाहर गई। झाड़ियां कुछ और उग आई थीं। दिन की रोशनी में एक-एक पत्ता ऐसे चमक रहा था जैसे पत्तों पर किसी ने मोम की परत चढ़ा दी हो। सूरज की किरणों को ऐसे प्रतिबिम्बित कर रहा था कि आस-पास की सब चीज़े साफ़-साफ़ नज़र आ रही थी। पत्तों के बीच, जड़ों के आस-पास, टहनियों के आर-पार, उर्मिला की नज़रों ने सब जगह छान डाला। मगर कुछ नज़र नहीं आया।

घर के पिछवाड़े उगे इस जंगल से किसी को कोई मतलब नहीं था। वहाँ क्या उगता है, क्या आता है, क्या जाता है या क्या रेंगता है, किसी से नहीं। घरों की एक दीवार सी थी जिसके पीछे इन झाड़ियों ने आश्रय ली थी और सुकून का बसेरा बना रखा था। यहीं एक दो मुँह वाला साँप उर्मिला को अक्सर दीख जाता था। उर्मिला को वह दो मुँह वाला साँप अदभुत लगता था। उसने उसे छोड़कर जीवन में कभी कोई दो मुँह वाला जीव नहीं देखा था। आजकल जब उर्मिला अपनी बूढ़ी माँ से एकनाथ जी की बातें करती है तो उसकी माँ कहती है कि दहेज इंसान को भी दो मुँह वाला साँप बना देता है।

बैठक की आवाज़ें अब भी उर्मिला के कानों में पड़ रही थीं। दाल चढ़ाकर उर्मिला खाली कप लेने बैठक की ओर गई तो एकनाथ जी अब भी गरम मक्के की तरह फूट ही रहे थे।

“आख़िर हमने भी तो ऋतु की शादी में कार दी ही थी न! हम कहाँ पीछे हटे।”

“आपने कहाँ दी थी? ऋतु ने मेरे लाख मना करने के बाद अपने फंड से पैसे निकालकर खुद खरीदी थी।”

ध्रुव से भी रहा नहीं गया और दमयंती के पलड़े को भारी करने के लिए एक-आध ग्राम बातें और अपनी तरफ से चर्चा की तराजू पर चढ़ा दी।

“हाँ-हाँ, दीदी कह रही थी कि आज नहीं तो कल वो कार खरीदेगी ही। शादी में खरीदने से मामला भी सुलझ जाएगा।”

सारे पलड़ो को चित्त करते हुए जैसे एकनाथ ने अपना ढाई किलो का हाथ ही तराजू पर रख दिया हो।

“हाँ-हाँ वो दे या हम दें। कार तो लड़की वालों की तरफ से ही दी गई थी न! अब मैं कहाँ कह रहा हूँ कि ध्रुव की होने वाली पत्नी अपने खर्चे से कार मत खरीदे।”

उर्मिला टेबल पर रखे कप उठाने झुकी तो उसने देखा कि सामने बैठे एकनाथ हरी लेनिन की शर्ट पहने हुए हैं और फुँफकारते ही चले जा रहे हैं।

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*नीतू सिंह

नाम नीतू सिंह ‘रेणुका’ जन्मतिथि 30 जून 1984 साहित्यिक उपलब्धि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारिशस द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय हिन्दी कविता प्रतियोगिता 2011 में प्रथम पुरस्कार। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, कविता इत्यादि का प्रकाशन। प्रकाशित रचनाएं ‘मेरा गगन’ नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2013) ‘समुद्र की रेत’ नामक कहानी संग्रह(प्रकाशन वर्ष - 2016), 'मन का मनका फेर' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष -2017) तथा 'क्योंकि मैं औरत हूँ?' नामक काव्य संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) तथा 'सात दिन की माँ तथा अन्य कहानियाँ' नामक कहानी संग्रह (प्रकाशन वर्ष - 2018) प्रकाशित। रूचि लिखना और पढ़ना ई-मेल n30061984@gmail.com