तुम
नदी जैसे बहती अपने में रहती
वैसे बढ़ो तुम अपने में रहो तुम
वृक्ष जैसा अचल है पूर्ण वन में
वैसे अपना मन स्थिर करो तुम
पक्षी जैसे गाते हैं अपना संगीत
वैसे अपनी बात जग में रखो तुम
सागर जैसा गंभीर है असीम है
वीर गंभीर और चंचल बनो तुम
सागर गंभीर चंचलता भी उसमें
सिंधु से असीम अजेय बनो तुम
वायु जैसे बढ़ती सुनिश्चित ओर
वेग की प्रबलता लेकर बढ़ो तुम
हीरा है बनना रवि सा चमकना
तो संघर्ष की ज्वाला में तपो तुम
मैं ये न कहता कि सब जैसे बनो
अपने का ही विस्तार करो तुम
अपनी ही लय में अपनी धुन में
निर्झरणी सम स्वतंत्र बहो तुम
– नवीन कुमार जैन