“मदकलनी छंद”
विकल भई, जल तरसी, यह बगिया, मधुबन की।
नयन तके, नभ गगरी, जल यमुना, गिरिधर की।।
सुन सजना, घर अँगना, सुधि धरिए, चितवन में।
मग मथुरा, मृग छवना, पय विधना, उपवन में।।
दरश दियो, नहि अपना, कित रहते, अनुनय है।
अरज सुनों, मन रसिया, नभ उड़ते, सविनय है।।
श्रवन मिली, नहि मुरली, रस मधुरी, प्रियमन में।
अयन तकूँ दिन रतिया, घर बखरी, अनबन में।।
महातम मिश्र ‘गौतम’ गोरखपुरी