मुहम्मद बिन तुगलक की रूह से साक्षात्कार
आज जब सुबह घुमने निकला तब अंधकार पूरी तरह से छटा नहीं था और भानू देव भी अपनी स्वर्ण रश्मियों को बिखेरने की शीघ्रता में नहीं थे;शायद आकाश की ओट से धरा पर चारों ओर छाये धूंधलके का आनन्द ले रहे थे।धूंध भी ऐसी कि दस गज दूर का भी साफ दिखाई न दे,ऐसे में एक आकृति दूर से अस्पष्ट सी नजर आई।नजदीक जाकर देखा तो एक सफेद लबादे में भद्र पुरूष जिनके सफेद झक बाल और लम्बी दाड़ी देख में चकित रह गया।इतनी प्रातः किसी वृद्ध को वह भी इस रूप में देखकर मन में कुछ अज्ञात सा भय भी हुआ।मेरी तरफ देख वह मुस्कराये।मैंने अपनी कांपती आवाज को संयमित करते हुए पूछा- “बाबा इतनी ठण्ड में अल सुबह आप कहाँ जा रहे हैं।पहले तो आपको इस तरफ नहीं देखा!
“डरो मत बेटा,तुम मुझे नहीं जानते,क्योंकि मैं कभी एक जगह टिकता भी नहीं हूँ।शायद तुमने मेरा नाम सुना हो।मैं सल्तनत काल का बादशाह मुहम्मद बिन तुगलक की रूह हूँ।तुगलक वंश के बादशाहों में मेरा नाम बड़ा ही चर्चित और ख्यात रहा है और मुझे बहुत ही बुद्धिमान और विद्वान भी माना जाता रहा है।कुछ लोगों ने मेरे ऊपर मुर्ख होने का ठप्पा भी लगाया है।अब जबकि सदियाँ बीत चुकी है तब भी मेरी रूह को चैन नहीं मिल रहा है क्योंकि मुझे नवाचार करने का शौक रहा है।तुम्हें यदि इतिहास का जरा भी ज्ञान हो तो मैंने ही सांकेतिक मुद्रा के रूप में ताँबे के सिक्के चलाये थे और राजधानी दिल्ली से दौलताबाद और फिर दौलताबाद से दिल्ली कर दी थी।हालांकि प्रयोग असफल साबित कर दिया गया लेकिन यह भी कहा गया कि मैं उस समय के हिसाब से बहुत आगे था।शायद मुझे समझा ही नहीं गया था और इसीलिए मरकर भी मेरी रूह को चैन नहीं मिला है।मैं यहाँ से वहाँ भटकता फिर रहा हूँ और आज के सत्ताधीशों के शरीर में प्रवेश कर उनसे नये-नये कारनामें करवाता रहता हूँ।कुछ में पास हो जाता हूँ तो कुछ में फेल।
जैसा कि मैंने सांकेतिक मुद्रा चलवायी तो आज के दौर में बड़े नोट चलवाये और मौका आने पर उन बड़े पुराने नोटों को बन्द करने के लिए नोटबन्दी करवा दी और फिर नये नोट चलवा दिये।करारोपण के नये नये तरीके इनसे इजाद करवा दिये।कुछ टैक्स समाप्त करवा दिये तो कुछ नये टैक्स लगवा दिये।सबसे बड़ा विचार तो बहुत से करों को समाप्त करते हुए एक टैक्स का क्रांतिकारी बदलाव करने का है।इसके लिए मेरी रूह को कई शरीरों में प्रवेश करना पड़ा,तब जाकर अब चैन मिला है।हालांकि यह भी प्रयोग के दौर से गुजर रहा है।यदि यह प्रयोग भी असफल रहा तो मेरे दिमाग में और भी आइडिया हैं जिन्हें वक्त आने पर किसी के माध्यम से आजमाऊंगा।नये आइडिया के साथ फिर किसी नये शरीर में प्रवेश कर लूंगा।
वैसे तुमको बता दूं कि राजशाही में तो इतना था कि किसी एक के शरीर में घुस जाओ तो काम हो जाता था लेकिन लोकतंत्र में एक ही दिन में सैकडो़-हजारों शरीर में प्रवेश करना पड़ता है।कुछ बानगी तुम्हारे सामने रखता हूँ; तुम देखते ही हो कि जहाँ सड़क दुर्घटना होती है तो स्पीड ब्रेकर की मांग उठने लगती है,बन जाने पर इन्हीं बेतरतीब स्पीड ब्रेकर को हटाने की मांग,चौराहों पर रोटरी बनाने के नये नये आइडिया!बड़ी-बड़ी डिग्री वाले इन्जीनियर ,ब्यूरोक्रेट भी रहते हैं लेकिन उनकी डिग्री ,उनका ज्ञान किसी काम का नहीं रह जाता क्योंकि मेरी रूह जैसा चाहती है, वैसा वे करते जाते हैं, चाहे स्पीड ब्रेकर छोटे करना हो,बड़े बनाना हो,हटाना हो,यही बात रोटरी छोटी-बड़ी करने की है।ये तो प्रयोग हैं।एक और छोटा सा उदाहरण देना चाहूंगा,एक बड़े शहर के पुरातत्व महत्व के बाग सह महल को पानी की सीलन से बचाने के लिए इनके आसपास करोड़ो की लागत से पुरातत्व विभाग ने पेवर ब्लॉक लगवा दिये,अब पानी की निकासी रूक जाने से उसी विभाग के अधिकारियों के शरीर में मेरी रूह ने प्रवेश कर पेवर ब्लॉक हटाने का निर्णय करवा दिया।मैं तो पूर्ण रूप से प्रयोगवादी हूँ,प्रयोगों में ही मेरा विश्वास है और इसीलिए एक ही लक्ष्य पर फोकस करता हूँ।गुण-दोष जायें तेल लेने,मेरी बला से!”
“लेकिन बाबा,लोकतंत्र में विशेषज्ञों की राय सर्वोपरि है, प्रयोगों से काम नहीं चलता।अपने उत्तरदायित्व से कोई कैसे बच सकता है!”मैंने साहस करके उनको टोका।
“अरे भाई,तुम भी कैसी बात करते हो!हमारे जमाने में जैसा हम चाहते थे,वैसा ही होता था और आज भी मेरी रूह जैसा चाहती है वैसा ही होता है, तब उत्तरदायित्व निर्धारित करने की मुर्खतापूर्ण बात कब और कहाँ से आ गई।”उन्होंने क्रोधित होते हुए कहा।
मैंने सकपकाते हुए हामी भरी और अपनी राह पकड़ने में ही कुशलता समझी।