कविता

लालच का परिंदा

जब आँखें खुलीं
मैंने देखा
कुछ बूंदें नमक की
है कोरो के भीतर
मेरे अंदर का समुंद्र
है आज शायद बहुत उदास
छोड़ गये हैं कुछ अपने
रह गये हैं शेष बचे

धुंधली धुंधली संध्या में
आह!
मैंने रोप दिया
अपने ही दिल का बीज
आह !गहराती रातों में
मेरे ही पैरों की चाप
प्रतीत होता क्यों अंजान

धुआँ उठ रहा कहीं
जीवित व्यक्ति देख रहा
पर क्या मृत भी देखता होगा?
सहमति में
कई मृत खड़े हो गये
सिर हिलाते
हाँ –हमने देखा है
जीवित को जलते हुए
एक दिन ऐसा आयेगा
लगेगा जब–
खोकर भी हम कुछ पा न सके
पाकर भी कुछ खो न सके
क्या ? कुछ है मेरे पास
कुछ तो नहीं है मेरे पास

सच कहुँ तो
है कहाँ फर्क इंसान इंसान में
न कोई बड़ा –न कोई छोटा
सबकी आँखों में चहकता है
लालच का एक परिंदा।

कात्यायनी सिंह

जन्म--22 दिसम्बर पति--स्वं दीपक सिंह पैतृक स्थान--सासाराम (बिहार) शिक्षा --आरम्भिक --बाल भारती पब्लिक स्कूल, सासाराम B.sc -- श्री शंकर महाविद्दालय ,,सासाराम सम्मान -- युग सुरभि सम्मान (उत्कृष्ट लेखन ) पुष्पवाटिका,मधुराक्षर, गुफ़्तगू , दस्तक टाइम्स पत्रिका में समय समय पर रचनायें प्रकाशित। प्रकाशित किताब -- अंतर्मन की कथायें (साझा कहानी संग्रह ) प्रकाशित किताब -- वो चरित्रहीन सम्पर्क --गीताघाट काॅलोनी,फजलगंज सासाराम, रोहतास बिहार ---821115 ई मेल --- lekhikapooja @gmail.com