हाथी और दर्जी
एक था दर्जी, एक था हाथी,
दोनों ही थे पक्के साथी,
दर्जी करता खूब सिलाई,
हाथी खाता खूब मिठाई.
हाथी आकर रोज रात को,
कहता- ”दर्जी भाई नमस्ते”,
दर्जी देता रोटी उसको,
आपस में वो कभी न लड़ते.
एक रात दर्जी को सूझी,
नई तरह की एक शैतानी,
सुई चुभो दूं हाथी को तो,
खूब करेगा याद वो नानी.
सूंड बढ़ाकर हाथी थोड़ी,
करने आया उसे नमस्ते,
सुई चुभोकर दर्जी बोला,
”जाओ जी तुम अपने रस्ते”.
हाथी को गुस्सा तो आया,
लेकि मुंह से कुछ ना बोला,
चला गया वो पानी पीने,
कीचड़ सूंड में भरकर लौटा.
दर्जी की दूकान में आकर,
कीचड़ उसने खूब उछाला,
दर्जी ने भी समझ लिया तब,
हाथी नहीं है भोला-भाला.
कभे नहीं तुम किसे सताना,
प्यार-दोस्ती सदा निभाना,
प्यार करोगे, प्यार मिलेगा,
की खटपट तो रोना पड़ेगा.
आओ हम सब मिलकर बोलें,
प्यार करेंगे, प्यार करेंगे,
आपस में हम कभी लड़ाई,
नहीं करेंगे, नहीं करेंगे.
बुरे काम का बुरा नतीजा होता है. दर्जी को शरारत का अवांछित फल भुगतना पड़ा. उसके ग्राहकों के कपड़े खराब हो गए.