फ़ख़्र
सुबह-सुबह लैपटॉप खोलते ही कल की घटना का मंज़र मोनिका के सामने साकार हो उठा.
कल उसके एक मित्र उसके ब्लॉग वाली वेबसाइट पर किसी कवि की एक कविता देखकर हैरान हो गए. उस कविता के भाव, भाषा, शैली बिलकुल मोनिका की तरह. कविता का शीर्षक बदला हुआ था और अंत में अपने नाम का प्रयोग करते हुए दो पंक्तियां जोड़ी गई थीं, यानी सीधे-सीधे कविता की चोरी. स्मृति पर थोड़ा जोर लगाकर उन्होंने निष्कर्ष निकाला, कि यह कविता वह इसी साइट पर पढ़ चुके हैं और इस पर अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं. उन्होंने झट से फोन मिलाकर मोनिका से बात की. मोनिका भी यह देखकर हैरान रह गई. मोनिका के मित्र ने झट से उस कविता पर प्रतिक्रिया लिखकर कवि महोदय को बहुत लताड़ा. तुरंत कवि महोदय ने लीपापोती करते हुए नेट की गलती बताई और माफी मांग ली. रात को जल्दी सोने वाली मोनिका तो निश्चिंत हो सो गई थी, पर उसके हितैषी मित्रों की आंखों में नींद कहां!
लैपटॉप खोलते ही उसे तीन मित्रों की तीन मेल्स मिलीं. एक मित्र ने लिखा था- ”चोर महाशय ने माफीनामा मांग लिया है.”
दूसरे मित्र ने वेबसाइट से आई हुई मेल फॉरवर्ड की थी- ”नमस्ते, आपकी शिकायत पर त्वरित कार्रवाई करते हुए वेबसाइट से यह ब्लॉग हटा लिया गया है. अगर आगे भी कोई ब्लॉगर इस तरह से किसी दूसरे की रचना कॉपी करे तो कृपया हमें सूचित करें.”
”चोर कवि ने माफी मांग ली है. उसे आपकी कविता बहुत पसंद थी. उसे माफ कर देना चाहिए. वैसे भी आपको तो फ़ख़्र होना चाहिए, कि आपकी रचना पाठकों को इतनी पसंद आती है, कि वे इसे चुराने पर मजबूर हो जाते हैं.” तीसरे मित्र ने लिखा था.
मोनिका को सचमुच फ़ख़्र महसूस हो रहा था, चोरी की गई उस कविता की बेहतरी पर नहीं, बल्कि उसके जज्बातों को समझकर रातों-रात वेबसाइट से उस ब्लॉग को हटवाने वाले उन नेक मित्रों पर.
सच्चे मित्र मुश्किल से मिलते हैं,
कठिनता से छूटते हैं और भुलाए नहीं भूलते हैं.