लघुकथा

लकीरों का खेल जारी था

शाम के साढ़े पांच बज गए थे. सारा दिन सीमेंट-गारे से चिनाई करके लखनलाल अपने सीमेंट से सने खुरदुरे हाथों को साफ करते हुए अपने अतीत में खो गया था.

एक समय था, वह एल आइ सी एजेंट था. सुबह-सवेरे नहा-धोकर पूजा-पाठ से निवृत्त होकर धुले-प्रेस किए हुए कमीज-पैंट पहनकर वह काम पर निकल जाता और अक्सर विजयी मुस्कुराहट लिए लौटता. हाथ की लकीरों के बदलते ही वह ठाठ जाता रहा. वह तनिक नहीं घबराया.

उसने सुन रखा था- ”हाथ की लकीरें पल-पल परिवर्तित होती रहती हैं”. उसी के मुताबिक उसने सब्ज़ी का ठेला लगाना शुरु कर दिया. कमीज-पैंट का स्थान कुर्ते-पजामे ने ले लिया था, लेकिन धुले-प्रेस किए हुए. यहां बेटी की शादी के लिए बीस हजार की सब्ज़ी-फल खरीदने वाले एक ग्राहक ने उसकी उधारी चुकाने से इंकार कर दिया. उसकी दादागिरी लखनलाल की फाकागिरी बनने लगी. यहां फिर उसे सत्संग में सुनी हुई बात याद आ गई-

 

”मैं हाथ की लकीरों का मोहताज नहीं,
हाथ की लकीरें मेरी मोहताज हैं.”

 

उसने कोई भी काम करने का मन बना लिया.

हाथ की लकीरों का मोहताज न होने के संकल्प का ही सुपरिणाम था, कि काम खुद चलकर उसके पास आया. ठेकेदार चमनलाल ने उसके पास आकर कहा- ”लखनलाल, मुझे एक बड़ी बिल्डिंग बनाने का ठेका मिला है, मेरे साथ काम करोगे?”

”मुझे यह काम कहां आता है भला!” लखनलाल ने कहा था.

”कुछ काम तो तुम्हारे लिए निकल ही आएगा.” लखनलाल कंधे पर लटके गमछे को सिर पर पटके की तरह बांधकर उसके साथ मजदूरी करने निकल पड़ा था.

न जाने कब तक वह विचारों खोया हुआ हाथ रगड़ता रहता कि बलू ने आवाज लगाई- ”भगतजी, कब तक हाथ की लकीरों को सहलाते रहोगे? सत्संग में सब तुम्हारी राह देख रहे होंगे!. आज तुम्हें पूतना-वध का नया पद सुनाकर श्रोताओं के मन की लकीरों को भी तो सहलाना है न!” 

लकीरों का खेल जारी था.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

5 thoughts on “लकीरों का खेल जारी था

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुंदर लघुकथा, बहिन जी ! जाही विधि राखे राम ताही विधि रहिए।

    • लीला तिवानी

      प्रिय विजय भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    sundar rachna lila bahan .

    • लीला तिवानी

      प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.

  • लीला तिवानी

    इंसान एक बार जब ठान लेता है-

    ”मैं हाथ की लकीरों का मोहताज नहीं,
    हाथ की लकीरें मेरी मोहताज हैं.”

    तो सचमुच हाथ की लकीरें उसकी मोहताज हो जाती हैं.

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