कांग्रेस का आत्ममुग्ध महाधिवेशन
कांग्रेस का महाधिवेशन पहली बार राहुल गांधी की सदारत में हुआ। उम्मीद थी कि पार्टी में नई सोच, नया उत्साह दिखाई देगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। ताजपोशी नई थी। इसके अलावा कुछ भी नया नहीं था। वही पुरानी बात दोहराई गई। इसके मूल में नरेंद्र मोदी थे। मुकाबले की बात चली तो गठबन्धन पर पहुंच गए। इसके अलावा महाधिवेशन की कोई उपलब्धि नहीं रही। किसी विपक्षी पार्टी के महाधिवेशन में सत्ता पक्ष पर हमला बोलना स्वभाविक है। लेकिन पूरा महाधिवेशन इसी के हवाले कर देना अजीब था। महाधिवेशन मोदी प्रभाव मुक्त नहीं हो सका।
महाधिवेशन का विश्लेषण करें तो कई दिलचस्प तथ्य उभरते है। एक यह कि महाधिवेशन कांग्रेस का था, लेकिन इसमें माहौल मोदीमय बना दिया गया। जैसे कांग्रेस को अपनी नहीं नरेंद्र मोदी की ही चिंता है। दूसरा यह कि राहुल गांधी और उनकी पार्टी कांग्रेस पूरी तरह आत्ममुग्ध है। राहुल का विचार था कि उनकी पार्टी अपनी गलती मान लेती है। लेकिन हकीकत यह उजागर हुई कि वह गलती देखना ही नहीं चाहते। मनमोहन सिंह आज भी उन्हें सर्वाधिक पसन्द है। आर्थिक प्रस्ताव आज भी पी चिदंबरम प्रस्तुत करते है। गनीमत है कि अपने पुत्र का दस्तावेज पेश नहीं किया। जो अपने को पांडव घोषित कर दे, तो आत्मप्रशंसा के लिए और क्या बचेगा। राहुल को यह भी बताना चाहिए कि कांग्रेस ने पांडवों जैसा कौन सा कार्य कर दिया है। क्या वह अक्सर अज्ञातवास में चले जाते है, इतने मात्र से कांग्रेस को पांडव कहा जा सकता है। फिर वह कहते है कि यह गांधी जी की कांग्रेस है। यदि ऐसा है तो गांधी जी की इच्छा पर अमल क्यों नहीं हुआ। आजादी के बाद गांधी जी ने कहा था कि कांग्रेस का कार्य समाप्त हुआ। अब इसकी आवश्यकता नहीं रही। कांग्रेस को समाप्त कर देना चाहिए। तीसरा दिलचस्प तथ्य यह कि राहुल अपनी नाकामी पर भी बहुत खुश है। जब उन्होंने कहा कि भाजपा लगातार हार रही है, तब ऐसा लगा कि वह कांग्रेस का चित्रण कर रहे है। गलती से भाजपा का नाम ले दिया। फिर पता चला कि वह कुछ उपचुनाव से खुश है। जबकि वह जानते है कि उपचुनाव से आम चुनाव की भविष्यवाणी नहीं कि जा सकती।
राहुल गुजरात विधानसभा चुनाव की चर्चा भी उपलब्धि के रूप में करते है। जबकि सच्चाई यह है कि कांग्रेस पांचवी बार भी यहां सरकार बनाने से नाकाम रही। जबकि उसने सभी जातिवादी नेताओं की चौखट पर दस्तक दी थी। गुजरात चुनाव में उनका इतने मंदिरों में जाना अप्रत्याशित था, इसलिए लोगों का विशेष ध्यान गया। क्योंकि उत्तर प्रदेश, बिहार और फिर त्रिपुरा, नागालैंड, मेघालय में उनका यह रूप दिखाई नहीं दिया। वैसे मंदिर जाना उनका अधिकार है। इसपर आपत्ति कोई नहीं कर सकता। लेकिन यब भी सच्चाई है कि उनकी यूपीए सरकार ने प्रभु राम की कथा को काल्पनिक बताया था। यह बात सुप्रीम कोर्ट को दिए गए हलफनामे में बताई गई थी। रामसेतु को तोड़ने पर उनकी सरकार कटिबद्ध थी। लेकिन ऐसा करने से उसे रोका गया। मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि रामसेतु आस्था का विषय है। इसका संरक्षण होगा। राहुल विचारधारा की बात करते है। रामसेतु जैसे विषय विचारधारा निर्धारित करते है। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस पर भी राहुल ने तंज कसा। भारत की कोई धरोहर दुनिया मे लोकप्रिय हो, क्या राहुल की कांग्रेस को इसपर भी आपत्ति है।
राहुल ने कहा कि दलितों, आदिवासियों पर हमले हो रहे है। किसी भी जिम्मेदार नेता को ऐसी बाते नहीं करनी चाहिए। कानून व्यवस्था की कुछ अप्रिय घटनाये हो सकती है। लेकिन पूरे देश मे हमले होने की बात करना आपत्तिजनक है। इससे दुनिया में भारत की छवि खराब होती है। राहुल को ऐसी निराधार बातों से बचना चाहिए। इनका उन्हें लाभ भी नहीं मिला।
चार वर्षों से वह यही आरोप लगा रहे है। लेकिन इसके बाद भी दलितों और आदिवासियों ने उनकी बात पर विश्वास नहीं किया।
इसी प्रकार राहुल पिछले चार वर्षों से नरेंद्र मोदी के कपड़ो पर तंज कसते आ रहे है। एक बार तो विचार करते कि इस तरह के आरोपों से उन्हें या उनकी पार्टी को क्या लाभ मिल रहा है। क्या सूटबूट की बात से आमजन ने नरेंद्र मोदी को बेईमान मान लिया। क्या राहुल कुर्ते की फटी जेब के कारण गांधीवादी मान लिए गए थे। इसमें संदेह नहीं कि ललित मोदी, विजय माल्या, नीरव मोदी ने भारतीय व्यवस्था का लाभ उठाया। ललित मोदी और माल्या का पूरा आर्थिक साम्राज्य कब बना, राहुल को इस पर भी प्रकाश डालना चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार इनकी सम्पत्ति का जब्त कर रही है। फिर कोई व्यक्ति ऐसे चंपत न हो, इसके इंतजाम किए जा रहे। राहुल को समाज की नब्ज पता होती तो ऐसी बाते न करते। इन भगोड़ों के बाबजूद आमजन को नरेंद्र मोदी की ईमानदारी और नेकनीयत पर विश्वास है। उन्होंने कई लाख करोड़ के लोपुल बन्द किये है। यह धन कुछ लोगों की जेब में जा रहा था।
कांग्रेस ने यहां अपनी कमजोरी को छिपाने का पुरजोर प्रयास किया। लगातार मिल रही पराजय पर आत्मचिंतन नहीं हुआ। भाजपा के आत्मविश्वास पर निशाना लगाया गया। अपने डगमगाते आत्मविश्वास की किसी को चिंता नहीं थी। इसके इलाज के लिए गठबन्धन का ही भरोसा है। जब कोई पार्टी अपनी जमानत जब्त होने पर भी खुश होने लगे, तो मान लेना चाहिए कि उसने अकेले चलने का मंसूबा छोड़ दिया है। पूर्वोत्तर के तीन राज्यों की विधानसभा चुनाव और उत्तर प्रदेश के उपचुनाव के फौरन बाद कांग्रेस का महाधिवेशन आयोजित हुआ था। इस प्रकार माहौल खुशनुमा नहीं था। फिर भी इनके प्रति बेपरवाही बनी रही। कांग्रेस को यह विश्वास था कि पूर्वोत्तर राज्यों में भाजपा के कदम नहीं पड़ेगी। ऐसे में वास्तविक राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा उसी के पास रहेगा। लेकिन भाजपा के कदम वहां सत्ता तक जा पहुंचे। कांग्रेस देखती रह गई। गोरखपुर और फूलपुर में कांग्रेस उम्मीदवारों की जमानत जब्त ही गई। इसकी कांग्रेस को कोई परेशानी नहीं। वह उस गठजोड़ की जीत पर जश्न मना रही है, जिसने कांग्रेस को अपने से दूर कर दिया था। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सपा में गठबन्धन हुआ था। लेकिन स्थानीय निकॉय चुनाव में सपा ने उसे पूंछा तक नहीं। फिर उपचुनाव में सपा ने उम्मीदवार उतार दिए, बसपा ने समर्थन दिया। अंततः कांग्रेस को भी अपने उम्मीदवार उतारने पड़े। इनकी जमानत नहीं बची। कांग्रेस को इसकी समीक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन वह सपा की जीत में अपनी कमजोरी भूल गई।
कांग्रेस यदि न लड़ती, और बसपा की तरह सपा को समर्थन दे देती। लेकिन जब लड़ी थी, तब वह गैरों की जीत पर खुश कैसे हो सकती है। महाधिवेशन में देश के सबसे बड़े राज्य के प्रतिनिधियों को क्या सन्देश दिया गया, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
राहुल गांधी ने कहा कि गोरखपुर और फूलपुर में भाजपा के खिलाफ लोगों में गुस्सा था। अब दो लाख से ज्यादा वोट हासिल करने वाली भाजपा के खिलाफ गुस्सा था, तो छह हजार वोट पर निपट गई कांग्रेस के लिए क्या कहा जा सकता है। कांग्रेस के दिग्गज एक कदम आगे निकल गए। उन्हीने इस मतदान को सरकार के खिलाफ विद्रोह करार दिया। सवाल फिर वही है। यह नाराजगी और विद्रोह है तो,कांग्रेस को अपनी स्थिति पर भी विचार कर लेना चाहिए। आज देश के करीब सात प्रतिशत इलाके में ही कांग्रेस का शासन बचा है। चार बड़े और दो छोटे राज्यों में उसकी सरकार है।
महाधिवेशन में सबसे ज्यादा विचारविमर्श इसी पर होना चाहिए था। अपनी मजबूती के तरीके तलाशने चाहिए थे। लेकिन नरेंद्र मोदी,भाजपा पर हमला और गठबन्धन पर ही पूरा फोकस रहा। कांग्रेस यह समझने को तैयार नहीं कि गठबन्धन में मजबूती के हिसाब से ही महत्व मिलता है। कांग्रेस अपने जीवन की सबसे कमजोर स्थिति में है। राहुल गांधी के नेतृत्व पर भी सहमति बनाना आसान नहीं होगा। सपा समर्थक तो दो उपचुनाव जितने के बाद अखिलेश को प्रधानमंत्री बनाने का नारा बुलंद करने लगे है।
कांग्रेस पता नही किस खुशफहमी में है। सोनिया गांधी ने कहा कि जनता कांग्रेस के साथ है। जनता साथ है तो यह दिखाई क्यों नहीं दे रहा है। मल्लिकार्जुन खड़गे ने बैलेट पेपर से चुनाव की बात कही। मायावती द्वारा उठाये गए मुद्दे को कांग्रेस अभी तक चला रही है। महाधिवेशन में मनमोहन सिंह की तारीफ की गई। मतलब कांग्रेस यदि फिर सत्ता में आई तो उसी प्रकार का शासन देगी। राजनीतिक प्रस्ताव में समान विचारधारा वाले दलों से एक साथ आने की अपील की गई। भाजपा पर अहंकार का आरोप लगाया गया। कहा गया कि कांग्रेस इस अहंकार के सामने नहीं झुकेगी। इन बातों का कोई मतलब नहीं है। राजनीतिक पार्टी के रूप में भाजपा अपने विस्तार का प्रयास कर रही है, तो इसमें गलत क्या है। प्रजातन्त्र में विस्तार भी जनादेश से होता है। भाजपा जनसमर्थक से ही देश की सबसे बड़ी पार्टी बनी है। इसमें न तो अहंकार की बात है, न कांग्रेस को दबाने का कार्य किया जा रहा है। कांग्रेस आमजन के विश्वास जितने में विफल हो रही है। इसका दोष किसी अन्य को नहीं देना चाहिए।
आत्मविश्वास का होना अनुचित नही होता। कांग्रेस को आत्मविश्वास और अहंकार का फर्क समझना चाहिए। अब वह ईमानदारी की दुहाई देगी तो,शायद लोग आसानी से विश्वास न करे। सरकार का विरोध करना उसका अधिकार है। लेकिन उसे अपनी सीमा भी समझनी होगी। यूपीए सरकार की छवि आज भी लोगों के जेहन में है। ऐसे में वर्तमान सरकारर पर आरोप भी संभल कर लगाने होंगे। लेकिन ये महत्वपूर्ण तथ्य महाधिवेशन के एजेंडे में ही नहीं थे। मतलब साफ है, कांग्रेस में अपनी शक्ति बढ़ाने और अकेले अधिक से अधिक सीट जितने की इच्छाशक्ति नहीं रही। राहुल अपनी पार्टी और देश को विश्वास दिलाने में नाकाम रहे है। कांग्रेस की निराशा ऐसे भाषण या महाधिवेशन से दूर नहीं हो सकती।
— डॉ दिलीप अग्निहोत्री