जज्बात
उबलते हुए जज्बात आंखों के रास्ते ,
गर्म पानी बनकर बहने लगते हैं जब ।
उम्मीदें दूर से एक आवाज लगाती है ,
अहसास दर्द के चीखने लगते हैं तब।
नशा बन जाता है इश्क़ जहर की तरह
जीना भी गुनाह लगने लगता है बेहिसाब
साँचे मिट्टी के टूटने के लिए बने होते हैं
पत्थरों से सिर्फ कब्र बनती है जनाब ।
खलिस दिल की किसे सुनाएं दुनिया में
जिसे देखो वही दर्द से गमजदा है साहब।
मंजर वो पुराने ही सही आज के दौर में
रवायतें सिखाने लगते हैं बनकर किताब ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़