“सहते हो सन्ताप गुलमोहर”
सहते हो सन्ताप गुलमोहर!
फिर भी हँसते जाते हो।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अपना “रूप” दिखाते हो।।
ताप धरा का बढ़ा मगर,
गदराई तुम्हारी डाली है,
पात-पात में नजर आ रही,
नवयौवन की लाली है,
दुख में कैसे मुस्काते हैं,
सबक यही सिखलाते हो।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अपना “रूप” दिखाते हो।।
गरमी और पसीने से,
जब कोमल तन अकुलाते हैं,
पथिक तुम्हारी छाया में तब,
पल-दो पल सुस्ताते हैं,
जब-जब सूरज आग उगलता,
तब तुम खिलते जाते हो।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अपना “रूप” दिखाते हो।।
योगी और तपस्वी जैसा,
ज्ञान कहाँ से पाया है?
तपकर तप करने का,
निर्मल भाव कहाँ से है?
सड़क किनारे खड़े हुए,
तुम सबको पास बुलाते हो।
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अपना “रूप” दिखाते हो।।
अरुणलालिमा जैसा तुमने,
अपना भेष बनाया है,
प्यारे-प्यारे फूलों से,
सबका ही मन भरमाया है,
लालरंग संकेत क्रोध का,
मगर प्यार दिखलाते हो?
लू के गरम थपेड़े खाकर,
अपना “रूप” दिखाते हो।।
—
(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)