ग़ज़ल
रोग जाता ही नहीं कितनी दवा ली हमने
माँ के क़दमों में झुके और दुआ ली हमने
इस ज़माने ने सताया भी बहुत है मुझको
आग ये सीने की अश्कों से बुझा ली हमने
जब नजर आई नहीं ख्वाब में माँ की सूरत
अपनी आंखों से हर इक नींद हटा ली हमनें
देखने तो आज सभी आये तमाशा मेरा
जब से दीवार घरों में ही उठा ली हमने
तेरी चाहत में हुआ है हाल दिवानों जैसा
अपनी पगड़ी ही सरे आम उछाली हमनें
हर तरफ ही यूं नजर आने लगी उल्फ़त जब
दिल में नफरत थी मुहब्बत ही सजा ली हमने
खत्म हो जाये न ये दौर मुलाकातों का
ज़िंदगी बस तेरे वादे पे बिता दी हमने
माँ के क़दमों में ये सारा ही जहां दिखता है
बस तेरी याद में हस्ती भी मिटा ली हमने
खौफ था मुझको चरागों से ही घर जलने का
आग ‘अरविन्द’ घरों में ही लगा ली हमने
— कुमार अरविन्द