दोहे
जैसे भी हो जोड़िये,दिल से दिल के तार।
निजता में होती नहीं, कभी जीत या हार।।
शीशे के घर में नहीं, मिल सकता है चैन।
पत्थर रोज उछालते, लोग यहां दिन रैन।।
अपनी भाषा से मिला,अपनी माँ का प्यार ।
अपनापन से मिलता है, सबका पारावार।।
भाई चारा खो गया, स्वारथ का बाजार।
आम आदमी बन गया, रद्दी का अखवार ।।
टकराकर बलवान से कैसी होगी खैर।
मछली जल के बीच रह, करे मगर से बैर।।
नगर धुँये में घिर गये, हवा गई है सब खोय।
सांसे मंहगी हो गई, पेड रहे है रोय।।
— कालिका प्रसाद सेमवाल