ख़ामोश फ़िज़ा और मैं
ठंडी हवाएँ थी और
खामोश सी फ़िज़ा
मै खो गयी उन की
उस ख़ामोशियों में
कोई था, वहीँ कहीं
महसूस हो रहा था
आहट ना थी कोई
मगर कोई था,
समय की परतों में दबा सा
मै परत दर परत निकालती रही
उत्सुकता का पार ना था
कौन है दिल के इतने करीब
मगर अनजान सा
सारी परतें हटी तो जो सामने था
वो कोई अनजान ना था
ये तो मै ही थी
खुद को ही भूल के यूँ जिये जा रही थी
मैंने खुद को बाँहों में भर लिया
मिली थी आज बरसों बाद
याद नहीं आया
कब मै बिछड़ गयी थी खुद से ही
मगर आज खामोश फ़िज़ा में
खुद से मिलके खो गयी थी मै खुद में….सुमन(रूहानी)