ग़ज़ल – हम कितने लाचार हो गये
हम कितने लाचार हो गये
रद्दी का अखबार हो गये
बीच भंवर में डूबी नौका
समझे हम तो पार हो गए
छूट गए सब संगी साथी
हम खुद अपने यार हो गए
जिनसे पीर बताई जाए
उन सबके व्यापार हो गए
किससे अपना भेद बताएं
गुल थे लेकिन खार हो गए
जिसने जिधर बताया रास्ता
हम फौरन तैयार हो गये
निकला समय शिकारी जब भी
हम सब स्वयं शिकार हो गए
— मनोज श्रीवास्तव