लघुकथा – विकृति
“तुम तो अपने पति की काबिलियत और उनके गुणों की तारीफ करते हुए नहीं थकती थीं,पर अब क्या हो गया है जो तुम अपने पति से हर समय चिढ़ी-चिढ़ी रहती हो ? ” निशा ने अपनी सहेली रीतू से जानना चाहा !
” दरअसल,पहले मेरे पति बहुत स्मार्ट थे, ऊंचे ओहदे पर थे ! सरकारी गाड़ी, बँगला, नौकर-चाकर, रूतबा, पैसा सब कुछ था ! पर अब रिटायर्ड अधेड़ , अब तो सब कुछ ज़ीरो है ! ऐसे में कैसी तारीफ़, और काहे की तारीफ़ ? ” रीतू ने उत्तर देने के साथ प्रतिप्रश्न भी दाग दिया !
“पर रीतू,तुम्हारे पति तुम्हें प्यार भी तो बहुत करते हैं, और तुम्हारी तो लव- मैरिज भी है ?” निशा कहां मानने वाली थी !
“बिलकुल,निशा ! पर यह लव तब का है, जब मेरे पति एकदम यंग थे, और नए- नए प्रशासनिक अधिकारी बने थे, और हर तरह से सुविधा सम्पन्न थे ! इसके अलावा हेंडसम पर्सनाल्टी के मालिक भी थे ! ऐसे में उनसे लव हो जाना बिलकुल नेचुरल था ! मैं क्या, उनसे कोई भी लड़की लव कर लेती !” कहकर रीतू बेशर्मी से हा–हा—हा—करते हुए हँस दी !
रीतू का ऐसा जवाब सुनकर निशा एकदम सन्न रह गई, क्योंकि उसे रीतू की इतनी घटिया सोच का ज़रा- सा भी अंदाज़ा नहीं था ! पर इस पूरे वाक़यात से निशा को रीतू की बेटी अलंकृता के पिछले दिनों अपने पति से हुये तलाक की वज़ह का जवाब मिल गया ! वह सोचने लगी कि जब मिट्टी ऐसी है, तो उससे घड़ा कैसा बनेगा ? इसी तरह का आढ़ा-टेढ़ा विकृत ही ! वह जान गई कि अलंकृता के विचार कैसे होंगे यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है !
— प्रो. शरद नारायण खरे