बालकहानी – अंगूरा की बुद्धि
सर्दी के दिनों में अंगूरा तालाब के किनारे अपनी जेब में चने भरे बैठा था। एक चना निकालता ,फिर बड़ी मस्ती से एक-एक दाना कुटुर कुटुर चबा जाता। साथ में इतना मधुर गाना गा रहा था कि सरस्वती आनंदित हो उसके आस-पास ही घूमने लगीं। उनकी बहन लक्ष्मी भी घूमते-घामते उधर ही आन निकली। बोली-“ओ विद्या और संगीत की देवी,तू यहाँ क्या कर रही है? देख तो यह बच्चा कितने कष्ट में है! कड़ाके की सर्दी में खाली धोती पहन रखी है वह भी घुटने तक। बेचारे के पास पेट भरने को रोटी भी नहीं है। कुछ तो अपने पुजारी के लिए कर । तू नहीं कर सकती तो बोल — एक मिनट में मैं ही इसके दुख दूर कर दूँ।”
“ठीक है जैसा तुम चाहो करो।” सरस्वती बड़े शांत मन से लड़के से दूर जा खड़ी हुई। बुद्धि भी लड़के के दिमाग से छिटककर दूर जा पड़ी।
अंगूरे ने अपने सामने दो आदमी आते देखे जो उसी की तरफ बढ़ रहे थे। उनके हाथों में कपड़े से ढके दो थाल थे। उसके पास आकर एक आदमी बड़े प्यार से बोला –“बच्चे,हमारे सेठ जी अपने कमरे की खिड़की से रोज तुम्हें देखते हैं। तुम्हारा गाना उनको बहुत अच्छा लगता है। उन्होंने तुम्हें बुलाया है। तुम्हारे लिए लड्डू, इमारती और सब्जी-पूरी भेजी है। पहले पेट भरकर खा लो।’’
“ये कपड़े भी पहन लो—एकदम राजकुमार लगोगे। उनके कोई बेटा नहीं है। तुमको बेटा बनाएँगे। उनके साथ तुम बहुत खुश रहोगे।’’ दूसरा बोला।
अंगूरा घबरा गया। चीख उठा-नहीं—नहीं। मैं यह कुछ नहीं खाता । मैंने तो शुरू से ही चने चबाये है,सूखी दाल-रोटी खाई है। वही मुझे अच्छी लगती है। ये कपड़े! इतने भारी—चमकीले। मैं तो इनके नीचे दब कर रह जाऊंगा। मुझे तो घुटनना तक हल्की-फुलकी सी धोती पहनने की आदत है ।’’
उनसे छुटकारा पाने को अंगूरे ने भागना शुरू किया। आगे-आगे लड़का ,पीछे पीछे दोनों सेवक। उन्होंने उसे जल्दी ही पकड़ लिया । किसी तरह से उसे कपड़े पहनाए और सेठ के घर ले आए।
सेठ जी अंगूरा को देखकर प्रसन्न हो उठे । बड़े स्नेह से बोले-“बेटा तुम्हारा नाम क्या है?”
‘अंगूरा’। उसने बेरुखी से जबाव दिया।
“तुम्हारा नाम तो अंगूर सा मीठा है। आवाज भी जरूर मीठी होगी। हम तो कल तुम्हारा गाना सुनेंगे।’’ सेठ ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया।
“मुझे नहीं आता गाना-वाना।’’
“तुम तो गुस्से में भी बहुत अच्छे लगते हो। अभी तुम बहुत थके हो। अपने कमरे में जाकर आराम कर लो।’’
सेठजी का नौकर उसे कमरे तक छोड़ आया। कमरे में गुदगुदा,रंगबिरंगा कालीन बिछा था । कदम बढ़ाते ही उसमें अंगूरा के पैर धंस गए। चलना ही मुश्किल! डनलप के गद्दे पर बैठा तो बुरी तरह उछल पड़ा। कोने में टी॰वी॰ रखा था जिसमें कार्टून पिक्चर चल रही थी। उसने उसकी तरफ आँख उठाकर भी न देखा। लगा जैसे वह जादूनगरी में आ फंसा हो।
खिड़कियाँ बंद थीं, उस पर भी भारी भरकम लटकते पर्दे। बिना ताजी हवा और रोशनी के उसका दम घुटने लगा। अंगूरा पागल सा कमरे में चक्कर लगाने लगा। क्या करे,क्या न करे?भाग भी नहीं सकता था ,दरवाजे पर पहरा था।
आधी रात को जब सब सो गए ,उसने किसी तरह उचककर खिड़की खोल ली । “आह अब तो मैं यहाँ से कूदकर भाग जाऊंगा।’’ वह चहक उठा। जैसे ही उसने कूदना चाहा सरस्वती तेज आवाज में बोली-“अरे लक्ष्मी,तुम्हारा बच्चा मरने जा रहा है। उसे बचाओ।’’
“बहन,तुम्ही बचाओ ।मैंने तो बहुत कोशिश कर ली इस गरीब को अमीर बनाने की। लेकिन मूर्ख सेठ के पास रहना ही नहीं चाहता।’’ लक्ष्मी गिड़गिड़ाई।
सरस्वती मुसकाई। बुद्धि तुरंत अंगूरे के दिमाग में प्रवेश कर गई। वह तुरंत अपना भला-बुरा सोचने लगा –“अरे मैं यह क्या करने जा रहा था। खिड़की से कूदने पर तो मैं मर जाता।’’ उसने अपने कदम पीछे हटा लिए। मुड़कर देखा–“आह! क्या सुंदर सजा कमरा है। पलंग तो कमाल का है। झक-झक करती सफेद चादर पर तो आज मैं मजे से सोऊँगा। एक बार नींदिया मेरे पास आई तो जाने ही नहीं दूंगा।’’ बड़ी शान से पलंग पर बैठ गया और खुद से ही बतियाने लगा – अब तो सेठ के घर मैं ठाठ से रहूँगा,पढ़ूँगा ,खूब पैसा कमाऊँगा पर—पर पैसे का करूंगा क्या! हाँ याद आया कब्बू और गोली हमेशा भूखे रहते हैं उन्हें खूब सारी रोटियाँ खिलाऊंगा, पढ़ाऊंगा भी। पढ़ने से तो सरस्वती आती है न । सरस्वती आएगी तो उसके पीछे लक्ष्मी भी दौड़ी चली आएगी। फिर तो आनंद ही आनंद! ख्यालों की दुनिया मेँ खोया अंगूरा न जाने कब कब मेँ निंदिया की गोदी मेँ लुढ़क पड़ा और ज़ोर ज़ोर से खर्राटे लेने लगा घों–गों,घों–गों।
— सुधा भार्गव